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________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-१७५, १७७ शरीरादि विषय-कषायों की प्रवृत्ति चलती है, आर्त-रौद्र रूप ध्यान होते हैं; इनसे बन्धन में बंधे नहीं थे, स्वतंत्रता के पुजारी स्वतंत्र साधक थे। योग (मन,वचन, बचने हटने के लिये अपने उपयोग को अपने में स्थिर करने के लिये निज आत्म वैभव काय) की स्थिरता होने पर ही उपयोग की स्थिरता होती है, तभी ध्यान समाधि के चिन्तन मनन में लगे रहें, धर्म ध्यान में लीन रहें, इससे इन कर्मादि से छूटकर निज लगती है। स्वभाव में लीन हो जायेंगे और निज स्वभाव के आश्रय होने,ध्यान साधना करने से योग की विधि- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा,ध्यान, यह कर्म कषायें आदि स्वयं गल जायेंगे विला जायेंगे क्योंकि २. समाधि। कम्म सहावं विपन, उत्पत्ति विपिय दिस्टि सभा । ध्यान के बाधक कारण-१. अज्ञान (मिथ्यात्व), २. मूर्छा (परिग्रह का चेयन व संजुत्त, गलिय विलियं ति कम्म बंधानं ॥ ६ ममत्व). ३. प्रमाद (इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति),४. मोह राग द्वेष, ५. कामभोग ॥ कमलबत्तीसी-६॥ है और शरीर की आसक्ति (सुखियापना) इसी बात को विस्तार पूर्वक आगे की गाथाओं में कहते हैं - ध्यान करने वाले ध्याता के लक्षण - १. मुमुक्ष (मोक्ष की इच्छा रखने धर्म अर्थ तिअर्थ च, तिअर्थ वेदंति जत्पुनः । * वाला), २. संसार से विरक्त, ३. क्षोभ रहित (शांतचित्त), ४. वशी (मन वश में षट् कमलं त्रि उर्वकारं, धर्म ध्यानं च जोइतं ।। १७५ ॥ १२ हो), ५. स्थिर (योग की स्थिरता, आसन की दृढ़ता), ६. जितेन्द्रिय हो,,७. संवृत (नियम संयम युक्त हो),८.धीर हो। धर्म च अप्प सद्धावं, मिथ्या माया निकंदनं । इस प्रकार का साधक योग की स्थिरता के लिये षट्कमल और ॐ ह्रीं श्रीं तीन सख तत्वंच आराध्यहींकार न्यान मयं धुवं ।। १७६॥ ओंकार के माध्यम से धर्म ध्यान का अभ्यास करे और अपने शुद्धात्म तत्व को देखे। अन्वयार्थ-(धर्म अर्थ तिअर्थं च) धर्म अर्थात् निज शुद्ध स्वभाव रत्नत्रयमयी इस साधना से वह अपने इष्ट को उपलब्ध कर लेगा। है (तिअर्थ वेदंति जत्पुन:) और द्रव्य गुण पर्याय सहित अपने विंद स्वरूप अर्थात् 3 षट्कमल की साधना का क्रम क्या है इसे कहते हैं षट्कमलकाता भावमोक्ष मय है (षट् कमलं त्रि उवंकारं) छह कमल और तीन ओंकार अर्थात् सबसे पहले साधक सब ब्राह्य क्रियाओं से निवृत्त होकर स्वस्थ,शांत,एकांत पद्मकमल, गुप्तकमल, नाभिकमल, हृदयकमल, कंठकमल या मुखकमल और विंद में आसन का अभ्यास करे। पद्मासन ही सबसे श्रेष्ठ होती है। इसके पश्चात् कमल के माध्यम से ॐ ह्रीं श्रीं मंत्र द्वारा (धर्म ध्यानं च जोइत) धर्म ध्यान करो और मंत्रोच्चारण या मंत्र जप से मन को स्थिर करे। पद्मकमल, गुप्त कमल, नाभि कमल, अपने शुद्ध स्वभाव को देखो। हृदय कमल, कंठकमल,विंदकमल, यह शरीर के बहुत ही संवेदनशील स्थान होते (धर्मच अप्प सद्भाव) धर्म कहो या आत्मस्वभावकहो (मिथ्यामाया निकंदन) हैं। इन पर आघात होने से प्राण निकल जाते हैं तथा किसी भी आकस्मिक घटना में मिथ्यात्व माया आदि से सर्वथा परे है उसमें यह कुछ नहीं है (सुद्ध तत्वं च आराध्यं) आत्मा के प्रदेश संकुचित होकर इन्हीं किसी में एकत्र हो जाते हैं, ऐसा विधान है। ऐसे अपने शुद्ध तत्व की आराधना करो जो (हींकारंन्यान मयं धुवं) परमात्म स्वरूप साधक इन्हीं कमलों में अपने आत्म प्रदेशों को एकत्र करता है और उसी में अपना पूरा अरिहन्त सर्वज्ञ तीर्थंकर स्वरूप ज्ञानमयी ध्रुव है। उपयोग लगाता है। जैसे-जैसे साधना की स्थिति बढ़ती है. वैसे ही उसके आनंद की विशेषार्थ- यहाँ वह विधि बताई जा रही है कि जो अपना अनन्त चतुष्टय वृद्धि होती जाती है। शून्य शांत दशा में उसे शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्व ही दिखाई 9 स्वरूप रत्नत्रयमयी शुद्ध स्वभाव है उसे प्रगटाने के लिये क्या करें? इसका उपाय देता है। चेहरे पर मुस्कराहट प्रसन्नताशांत आनंद की दशा अपने आप प्रगट होने सदगुरु तारण स्वामी बता रहे हैं। वह स्वयं योगीथे,योग और ध्यान साधना करते लगती है। शरीर से और संसार से सब संबंध छूट जाता है। योग ध्यान साधना करने थे। उन्होंने जिस क्रम से, जिस विधि से अपने शुद्ध तत्व को प्रगट किया, भाव मोक्ष वाला साधक सबके बीच रहता हुआ भी अपने में रहता है। कहाँ क्या हो रहा है? की दशा में रहे, उन्होंने वही मार्ग बताया है। वह किसी जाति-पांति सम्प्रदाय के किसने क्या कहा? मैंने क्या किया ? इसका उसे कुछ भी भान नहीं रहता। अपने
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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