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श्री आवकाचार जी
आपमें प्रसन्न संतुष्ट रहता है।
यह सब निरंतर साधना और अभ्यास करने से होता है। जितनी दृढ़ता और पुरुषार्थ काम करता है उतनी पात्रता बढ़ती है, आनंद की दशा बढ़ती है। ध्यान साधना में मंत्र जप का भी विशेष महत्त्व है। मन को शांत एकाग्र करने के लिये मंत्रोच्चारण, मंत्र जप बहुत सहयोगी है। मंत्र जप करने से भी रिद्धि सिद्धि प्रगट हो जाती है। साधक उस ओर ध्यान नहीं देता और न किसी रिद्धि सिद्धि के अभिप्राय से यह करना चाहिये वरना चिन्तामणि रत्न की जगह काँच में ही जीवन व्यर्थ चला जायेगा । कोई रिद्धि सिद्धि के मंत्र भी नहीं जपना चाहिये, अपने शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति हो उसी का लक्ष्य बना रहे। इसके लिये
ॐ ॐ ह्रीं श्रीं ॐ नमः सिद्धं, ॐ शुद्धात्मने नमः ।
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इन छोटे मंत्रों का ही जप करना चाहिये। बड़े मंत्रों में उपयोग स्थिर नहीं रहता। प्रमुख लक्ष्य शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति लीनता का रहना चाहिये। संसार शरीर और पर वस्तु का लक्ष्य नहीं रखना चाहिये। अपना शुद्ध स्वभाव तो समस्त मिथ्यात्व, मायादि कर्मों से सर्वथा परे है, उसमें यह कर्म कषायें आदि कुछ हैं ही नहीं । ऐसे अपने शुद्ध तत्व की आराधना करने से सर्वज्ञ स्वरूपी ध्रुवतत्व अपने आप प्रगट होता है।
इसके लिये धर्म ध्यान का निरंतर अभ्यास करना चाहिये। उसी में पदस्थ, पिंडस्थ आदि ध्यानों की साधना करना चाहिये। इनका स्वरूप आगे कहते हैंपदस्तं पिंडस्तं जेन, रूपस्तं विक्त रूपयं ।
चतु ध्यानंच आराध्य, सुद्धं संमिक दर्शनं ।। १७७ ।।
अन्वयार्थ (पदस्तं पिंडस्तं जेन) जो जीव पदस्थ, पिंडस्थ (रूपस्तं विक्त रूपयं) रूपस्थ और रूपातीत (चतु ध्यानं च आराध्यं) इन चार ध्यानों की आराधना करता है (सुद्धं संमिक दर्सनं) वह शुद्ध सम्यक्दर्शन का धारी है।
विशेषार्थ - यहाँ अन्तरात्मा सम्यक्दृष्टि क्या करता है, इस बात को बताया जा रहा है। जो भव्य जीव सम्यकदृष्टि मुमुक्षु है, वह अपने उपयोग को अपने में लगाने के लिये ध्यान के अन्तर्गत पदस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार प्रकार के ध्यान की साधना करता है।
SYARAT YAAAAAN FAA ARAS YEAR.
यहाँ कोई प्रश्न करे कि जो सम्यक्दृष्टि है वही यह धर्म ध्यान आदि की साधना करे, जो मिथ्यादृष्टि है वह क्या करे; क्योंकि उसे तो यह धर्म ध्यान हो ही नहीं सकते ?
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गाथा- १७७, १७८
उसका समाधान करते हैं कि भाई ! जो जीव अपना आत्म कल्याण करना चाहता है, मोक्ष का आकांक्षी है उसे सामायिक ध्यान तो अत्यन्त आवश्यक है; क्योंकि सम्यक्दर्शन निज शुद्धात्मानुभूति भी सामायिक ध्यान के समय में ही होती है। जिसे हो गई है उसका आगे का काम बनता है, जिसे नहीं हुई उसे भी इसी माध्यम से होती है।
यहाँ एक प्रश्न आया कि तीर्थंकर भगवान के समवशरण में क्या वह आत्मा को प्रत्यक्ष बताते हैं ?
उसका समाधान दिया है कि वह आत्मा के स्वरूप को बताते हैं । अनन्त चतुष्टय का धारी रत्नत्रयमय स्वरूप यह भगवान आत्मा स्वयं है, ऐसा वह प्रत्यक्ष अनुभव से बताते हैं। जो भव्य जीव इस बात की श्रद्धा करते हैं और परम ध्यान को उपलब्ध होते हैं उन्हें वह प्रत्यक्ष अनुभव में आ जाता है। अनुभूति, सम्यक्दर्शन शांत और स्थिरचित्त होने पर ही होता है, इसके लिये सामायिक ध्यान करना नितान्त आवश्यक है । यह बात अवश्य है कि जब तक आत्मानुभूति नहीं होती तब तक वह धर्म ध्यान नहीं होता परन्तु उसकी साधना अभ्यास करने से वह अवश्य होता है।
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यहाँ एक प्रश्न और आया कि पंचम काल में ध्यान हो ही नहीं सकता ? उसका समाधान करते हैं कि वर्तमान पंचमकाल में शुक्ल ध्यान नहीं हो सकता वह आठवें गुणस्थान से श्रेणी माड़ने पर होता है; परन्तु अभी सातवें गुणस्थान तक तो जीव जा सकता है और धर्म ध्यान भी हो सकता है तथा आर्त- रौद्र ध्यान से बचने के लिये धर्म ध्यान ही एक मात्र सहकारी है यदि धर्म ध्यान की साधना नहीं करोगे तो आर्त- रौद्र ध्यान ही करते रहोगे इसलिये ध्यान का अभ्यास तो प्रत्येक जीव को करना चाहिये। जो जिनेन्द्र की आज्ञा मानते हैं, जिनधर्मी हैं, उन्हें तो सामायिक ध्यान करना आवश्यक ही है, मात्र कोरी चर्चा करके समय व्यर्थ खोने से कोई लाभ नहीं है।
अब आगे पदस्थ ध्यान किसे कहते हैं, उसका स्वरूप क्या है, इसका वर्णन आगे की गाथाओं में करते हैं
पदस्त पद वेदंते, अर्थ सब्दार्थ सास्वतं ।
व्यंजनं तत्व सार्धं च पदस्तं तत्र संजुतं । १७८ ।।