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4 श्री श्रावकाचार जी
गाचा-१७८.१८२ Ooa कुन्यानं त्रिन पस्यंते, छाया मिथ्या विषंडितं ।
सास्वतं पदं) अपना पद निज शुद्धात्मा ही शाश्वत पद है (अनृतं अचेत तिक्तंच) 6 विजनं च पदार्थ च, सार्थ न्यान मयं धुवं ॥१७९॥
इसलिये यह नाशवान शरीरादि अचेतन पर पदार्थ छोड़कर (धर्म ध्यान पदं धुवं)
- अपने ध्रुव पद निज शुद्ध स्वभाव धर्म ध्यान में लीन रहो। पदस्तं सुद्ध पदं सार्थ, सुद्ध तत्व प्रकासकं ।
विशेषार्थ-धर्म ध्यान सविकल्प होता है। शुक्ल ध्यान निर्विकल्प होता है। ७ सल्यं त्रयं निरोधं च, माया मिथ्या न दिस्टते॥१८॥
५. आर्त-रौद्र ध्यानों से बचने के लिये धर्म ध्यान की साधना करना पड़ती है। मन को पदस्त लोकलोकांत, लोकालोक प्रकासकं ।
5 स्थिर करने और उपयोग को अपने में लगाने की विधि धर्म ध्यान की साधना और विंजनं सास्वतं साधं, उवंकारं च विंदते ॥१८१॥ : उसमें यह पदस्थ, पिंडस्थ आदिध्यान सहकारी हैं। मंत्र जप और पंच परमेष्ठी पद अंग पूर्व च जानते,पदस्त सास्वतं पदं ।
हैं के आराधन विचार पूर्वक चित्त को एकाग्र करना और अपने शुद्ध स्वरूप सिद्ध पद
का आराधन करना, निज शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति होना ही पदस्थ ध्यान है। अनृतं अचेत तिक्तं च,धर्म ध्यान पदं धुवं ॥१८॥
अक्षरों के समूह को शब्द व शब्द के समूह को पद कहते हैं। अन्वयार्थ- (पदस्तं पद वेदंते) पदस्थ ध्यान पद का अनुभव करना है (अर्थ पदस्थ ध्यान करने की विधि-ध्यान करने वाले ध्याता के लक्षण पात्रता सब्दार्थ सास्वतं) प्रयोजनभूत निज शुद्धात्मा अक्षर शाश्वत पद है (व्यंजनं तत्व सार्धं च) अक्षर स्वर व्यंजन के माध्यम से तत्व की साधना करना और (पदस्तं तत्र चित्त होकर साधक ध्यान करे, शरीर पर वस्त्र कम से कम नाम मात्र को होवें, संजुतं )उसी में लीन हो जाना पदस्थ ध्यान है।
। पद्मासन में बैठकर सबसे पहले मंत्र जप, अपने स्वरूप का आराधन और पंच परमेष्ठी (कुन्यानं त्रिन पस्यंते) जहाँ तीन कुज्ञान कुमति, कुश्रुत, कुअवधि दिखाई पद का स्मरण करे फिर आत्म कल्याण की भावना, मुक्ति पाने परमानंदमय रहने के नहीं देते (छाया मिथ्या विषंडित) मायाचार मिथ्यात्व का खंडन हो गया हो अर्थात् लिये एक-एक पद का आराधन करे। सबसे प्रथम साधु पद है, जो भव्य जीव जहाँ यह कुछ न हो (विजनं च पदार्थ च) वहाँ व्यंजन और पदार्थ के द्वारा अपने 3 समस्त आरंभ-परिग्रह पापों का त्याग कर निग्रंथ नग्न दिगंबर वीतरागी साधु हो (साधं न्यान मयं धुवं) ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव की साधना करो यही पदस्थ जाते हैं और अट्ठाईस मूलगुणों का निरतिचार पालन करते हैं, अपने शुद्धात्म स्वरूप ध्यान है।
रत्नत्रय की साधना करते हैं, वह जगत वन्दनीय देवों से पूज्य परमेष्ठी होते हैं। यह (पदस्तं सुद्ध पदं साध) पदस्थ ध्यान में शुद्ध पद निज शुद्धात्म स्वरूप की मुक्तिमार्ग का प्रथम सोपान है। साधु पद के बिना कोई जीव सिद्ध पद मुक्ति नहीं पा साधना करने से (सुद्ध तत्व प्रकासक) शुद्धतत्व का प्रकाश होता है अर्थात् शुद्ध तत्व सकता। ऐसा विचार करते हुए उस रूप उस दशा में अपने आपको देखे,ऐसा अनुभव अनुभव में आता है जिससे (सल्यं त्रयं निरोधं च)तीनों शल्यों का निरोध हो जाता है करे कि मैं साध हो गया है, निग्रंथ दिगंबर दशा में एकांत निर्जन वन में ध्यान साधना अर्थात् फिर मिथ्या, माया, निदान यह तीनों शल्यें पैदा ही नहीं होती और (माया कर रहा हूँ-----आ हा हा - आनंदम् परमानंदम् , पूर्ण निराकुलता---शान्ति मिथ्या न दिस्टते) माया मिथ्यात्व भी दिखाई नहीं देते।
ॐ---परमशान्ति----निशल्यता----निश्चिन्तता----निर्भयता---- (पदस्तं लोकलोकांत) पदस्थ ध्यान करने से लोकलोकांत और (लोकालोक आनंद ही आनंद ----जय हो----जय हो. बीच में उपयोग बाहर शरीरादिपर, प्रकासक) लोकालोक प्रकाशित हो जाते हैं,जानने में आ जाते हैं (विजनं सास्वतं में चला जावे। मन में कोई विचार चलने लगें तो तुरंत मंत्र जप करने लगे और पुन: साध) व्यंजनों के माध्यम से अपने शाश्वत पद की साधना करने से (उर्वकारं च उसी दशा में अपने को ले आवे---- देखो, यह मुनिसंघ---- वाह-वाह-जय विंदते) अपना ॐकार स्वरूप शद्धात्म तत्व अनुभव में आता है।
हो,जय हो----चारों तरफ जय जयकार मच रही है। धर्म की प्रभावना हो रही (अंग पूर्वंचजानंते) ग्यारह अंग और चौदह पूर्व को जानने का प्रयोजन (पदस्तं है। आहार, विहार चर्या का क्रम चल रहा है ---- श्रावक धर्मी जीव श्रद्धा भक्ति
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