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04 श्री आपकाचार जी
गाथा-१७४.१४२ SOO पूर्वक पड़गाह रहे हैं। तिष्ठो स्वामिन् तिष्ठो ---- मन शुद्ध, वचन शद्ध, काय शुद्ध --- देखो ---- वह साधु समूह बैठा है- सैकड़ों मुनि बैठे हैं,मैं आचार्य पद से --- आहार जल शुद्ध है। हे स्वामिन् तिष्ठो तिष्ठो---- चारों तरफ जय जयकार शिक्षा-दीक्षा दे रहा हूँ----पंचाचार का पालन चल रहा है ----प्रतिक्रमण - मची है ----धर्म की महिमा, अतिशय बरस रहा है ---- मैं साधु पद में आहार , ---प्रत्याख्यान हो रहा है, स्तवन-वन्दन ---- शिक्षा उपदेश चल रहा है --- चर्या के लिये जा रहा हूँ----पाणि पात्र आहार कर रहा हूँ----श्रावक जन धर्म* - णवि होदि अप्पमत्तो,ण पमत्तो---- जाणगो दु जो भावो---- एवं भणंति की महिमा प्रभावना कर रहे हैं। जय जयकार मच रही है। ---- देखो देखो--- सुद्धंणाओ जो सो उसो चेव॥----आ-हा-हा---- ज्ञायक,मात्र ज्ञायक ही है - वह साधु पद में मैं चला जा रहा हूँ---- वाह वाह- जय हो जय हो---- ईर्या ---- अपने चैतन्य स्वरूप ज्ञानानंद स्वभाव में लीन रहो, लीन रहो ---- लीन समिति पूर्वक पीछी कमण्डल लिये----देखो---- वह देखो----जंगल की रहो----देखो वह शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्वं ----वाह-वाह जय हो जय हो
ओर चला जा रहा हूँ, अनशन ऊनोदर व्रत परिसंख्यान आदि तप चल रहे हैं ---- --- आनंदम् ----परमानंदम् ----1 चारों तरफ जय जयकार मची है ----जीवन में परम शांति ---- अतीन्द्रिय साधु,उपाध्याय, आचार्य तथा गणधर छठे सातवें गुणस्थानवर्ती होते हैं। आनंद बरस रहा है---- निज शुद्धात्मानुभूति हो रही है। ---- जय हो, जय यहाँ तक चार ज्ञान मति, श्रुत,अवधि और मन:पर्यय ज्ञान प्रगट हो जाते हैं। पदस्थ हो----अपूर्व अवस्था-धन्य घड़ी-धन्य भाग्य ----मुक्तिश्री का सुख प्रत्यक्ष ध्यान के क्रम में उसी पूर्व दशानुसार आचार्य पद में अपने को देखते हुए आगे श्रेणी वेदन में आ रहा है। देखो वह देखो ग्रीष्म काल में पर्वत के शिखर पर खड़े होकर माड़ने का क्रम बनता है। शुद्धोपयोग की स्थिति में शुक्ल ध्यान का क्रम बढ़ता है, ध्यान साधना चल रही है---- वह देखो---- वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे बैठकर गुणस्थान बढ़ते हैं। यहाँ से दो मार्ग बनते हैं-एक उपशम श्रेणी, एक क्षपक श्रेणी। ध्यान समाधि लगाई जा रही है---- अपूर्व आनंद----परमानंद-शीतकाल में जिसको क्षायिक सम्यक्त्व हो जाता है वह क्षपक श्रेणी से चढ़ता है। जिसको उपशम नदी के किनारे ध्यान साधना की जा रही है ----कोई भय नहीं,विकल्प नहीं-- सम्यक्त्व होता है वह उपशम श्रेणी से चढ़ता है। उपशम श्रेणी वाला ग्यारहवें --शरीर की चिंता नहीं----आत्मीय आनंद ----अमृत रस बरस रहा है।-५ गुणस्थान से गिर जाता है, ऊपर नहीं चढ़ पाता । क्षपक श्रेणी वाला सीधा चढ़ ---जय हो----जय हो----वह देखो वन में हिरण ठूठ जानकर खाज खुजा जाता है और तेरहवें गुणस्थान में अरिहंत सर्वज्ञ परमात्मा हो जाता है। रहे हैं, सिंह चारों तरफ बैठे हैं ---- जय हो जय हो, देवता जय जयकार कर रहे हैं तो अब यहाँ पदस्थ ध्यान में अपने को क्षपक श्रेणी माड़ना है---- देखो वह ---- साधु समूह बैठा है ---- मैं उपाध्याय पद से पढ़ा रहा हूँ, उपदेश चल रहा अपना निज शुद्धात्म तत्व ---- शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्व-अर्क सुअर्क ---- है ---- एगो मे सासदो आदाणाण दंसण लक्खणो----सेसा मे बाहिरा भावा, सुअर्क----प्रकाश ही प्रकाश----परमज्योति----सिद्ध स्वभाव---- सव्वे संजोग लक्खणा ---- मैं एक अखंड अविनाशी धुवतत्व शुद्धात्मा हूँ---- बस अब अपने को क्षपक श्रेणी से चढ़ना है----शुद्धोपयोग करना है----बाहर यह शरीरादि मैं नहीं मेरे नहीं ---- यह एक-एक समय की चलने वाली अशुद्ध में इसी साधु पद नग्न दिगम्बर वीतरागी दशा में रहते हुए श्रेणी माड़ना है ---- वह पर्याय भी मेरे से सर्वथा भिन्न है ----वह ज्योतिर्मय ----शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म देखो, अपना सिद्ध स्वरूप ममल स्वभाव----बस इसी में लीन रहना है ----
तत्व----वह देखो----अर्क सुअर्क सुअर्क----जय हो---आनंदं--- यहाँ से उपयोग हटते ही नीचे गिर पड़ोगे---- सावधान,जोर लगाओ-सत्पुरुषार्थ 0 - परमानंदं ---- बस ---- इसी शुद्ध स्वभाव में डूबे रहो-लीन रहो ----5 करो, देखो अपने शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्व को---- देखो यह आँठवां गुणस्थान 9
और करना क्या है ---- देखो वह रत्नत्रयमयी-अपना निज शुद्धात्म स्वरूप -- अपूर्व करण ---- जय हो जय हो ---- बस अपने में लीन रहो। सिद्ध स्वरूप 1--वह देखो, अनन्त चतुष्टय प्रगट हो रहे हैं----जय हो----जय हो---- ममल स्वभावको ही देखो----यह तो सब अपने आप होगा----नवाँ गुणस्थान X
इसी अपने शुद्ध स्वभाव में लीन रहो----बस और कुछ मत देखो----किसी अनिवृत्ति करण----गुणश्रेणी निर्जरा होने लगी---- ध्यान अग्नि में कर्म जलने 9 की तरफ मत देखो----लगाओ,ध्यान समाधि लगाओ----जय होजय हो- लगे---- डटे रहो---- देखो अपने निज शुद्धात्म तत्व को----यह है धर्म