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RSON श्री श्रावकाचार जी
गाचा-१७१ DOO ऐसे अपने ममल स्वभाव को स्वीकार करता है, वह ज्ञानी सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा है। परिणमन चलना. इतना सब होते हुए भी जो अपनी स्व सत्ता में धौव्य है। जो इसलिये कहा है
त्रिकाल शुद्ध है, जिसमें न उत्पाद व्यय है, न गुण पर्याय का भेद है। जो अपने सत्ता । बंधा मिला है बंधे को,छूटे कौन उपाय।
, स्वरूप में शाश्वत है, वह ममल स्वभाव है। सब कुछ होते हुए भी जिसमें कुछ नहीं: कर सेवा निबंध की, पल में लेय छुड़ाय ॥
ॐ है, वह ममल स्वभाव धर्म है। बन्धन में है, ऐसा तो जगत कहता है और ऐसा ही बंधा हुआ बंधे हुए को मिला यहाँ कोई प्रश्न करे कि फिर ममल स्वभाव में उत्पाद व्यय, गुण पर्याय कुछ, है। कोई कर्मों से बंधा है, कोई जाति-पांति से बंधा है। सब कहीं न कहीं किसी न नहीं होते होंगे? किसी से बंधे हैं। ज्ञानी संत कहते हैं अरे! उस निबंध अपने शुद्ध स्वभाव का आश्रय C उसका समाधान करते हैं कि भाई ! ममल स्वभाव द्रव्य का होता है, द्रव्य में ले, उसकी सेवा कर तो पल में लेय छुड़ाय। एक मुहूर्त में केवलज्ञान हो जाये, स्वयं , होता है। जीव भी एक द्रव्य है और यह ममल उसका स्वभाव है तो गुणों में पर्याय में परमात्मा हो जाये । शिवभूति मुनि इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। जब यह भान हुआ परिणमन चलता है, पर्याय शुद्ध-अशुद्ध होती है। स्वभाव तो अपने में एक अखंड तुषमास भिन्नं, इन शरीरादि संयोगों से भिन्नमैं त्रिकाल शुद्ध टंकोत्कीर्ण अप्पा ध्रुवतत्व 5 अभेद शाश्वत ध्रुव रहता है। उसे ही ममल स्वभाव कहते हैं। जैसे जो चेतना ममल स्वभावी भगवान आत्मा त्रिकाल एक रूप शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्व हूँ। जहाँ निगोदिया, एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय,तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पशु मनुष्यादि यह अनुभूति में आया, उसी समय ध्यान लगाकर बैठ गये ४८ मिनिट में केवलज्ञान में होती है, उसमें कोई भेद नहीं होता। गुणों में प्रगटपना-अप्रगटपना, पर्याय में प्रगट हो गया। यह है सत्य धर्म की महिमा और ममल स्वभाव की साधना का फल। अशुद्धता, कर्मों की तीव्र मंद सत्ता, यह अलग-अलग होती हैं परन्तु चैतन्य शक्ति अपने को यह बात जंचे, समझ में आये तो काम चले। मात्र चर्चा करने से कोई लाभ नहीं, एक सी होती है, इसलिये कहा है किहै। इसी बात को सद्गुरू आगे गाथा में और स्पष्ट कर रहे हैं
जो निगोद में सो ही मुममें, सो ही मोक्ष मझार। मिथ्या समय मिथ्या च, रागादि मल विवर्जितं।
निश्चय भेद का भी नाही, भेद गिने संसार ।। असत्यं अनृतं न दिस्टते,ममलं धर्म सदा बुधैः।।१७३॥
चेतना शक्ति सबमें एक सी होती है और यही जीव का शुद्ध धर्म है, जो अपने
ऐसे चैतन्य स्वरूप की प्रतीति करता है कि मैं तो एक अखंड अविनाशी चैतन्यतत्व अन्वयार्थ - (मिथ्या समय मिथ्या च) मिथ्यात्व और मिथ्या प्रकृति
२ भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि कर्म संयोग अशुद्ध पर्याय मैं नहीं, मेरे नहीं। मैं तो (रागादि मल विवर्जित) राग-द्वेषादि मलों से वर्जित जहाँ यह कोई हैं ही नहीं
३ शुद्ध चेतना मात्र जीव तत्व हूँ, वही इस ममल धर्म को स्वीकार करता है और इसी (असत्यं अनृतं न दिस्टते) तथा जहाँ झूठी नाशवान अशुद्ध पर्यायें भी दिखाई नहीं ।
८ की साधना आराधना से परमात्मपद, परमानंद की उपलब्धि होती है। इसी के देती (ममलं धर्म सदा बुधैः) हमेशा उसे ही ममल धर्म जानो।
आश्रय जीव ज्ञानानंद स्वभाव में रहता है जिसको इसकी प्रतीति दृढ श्रद्धान नहीं है विशेषार्थ- यहाँ ममल स्वभाव किसे कहते हैं, इसका वर्णन चल रहा है।
वह संसार में रुलता है। सद्गुरू कहते हैं कि जो मिथ्यात्व और मिथ्या प्रकृति ज्ञानावरणादि कर्म तथा 8
रणादि कर्म तथा यहाँ कोई प्रश्न करे कि जब यह जीव ज्ञानानंद स्वभावी है तो फिर यह अपने राग-द्वेषादि मलों से भिन्न, न्यारा है। जहाँ यह कोई है ही नहीं इनका पहुंचना ही ज्ञानानंद स्वभाव में क्यों नहीं रहता? ममल स्वभावी है तो ममल स्वभाव में क्यों ? सम्भव नहीं है तथा जहाँ झूठी नाशवान अशुद्ध पर्यायें भी दिखाई नहीं देती, वह नहीं रहता? ममल स्वभाव है। हमेशा उसे ही ममल धर्म जानो, बड़ी ही अपूर्व बात है।
उसका समाधान करते हैं कि भाई! यह जीव ज्ञानानंद स्वभावी तो है परन्तु यहाँ एक जीव द्रव्य उसमें अनादि से पुद्गल कर्मों का निमित्त-नैमित्तिक
जब तक इसका पर से अर्थात् शरीरादि पर द्रव्य और पर जीवों से- १. संबंध, संयोग संबंध, अनन्तगुण, अनन्तानंत पर्यायें और प्रति समय उत्पाद व्यय रूप २.स्वार्थ 3.लगाव.४. अपेक्षा रहेगी. तब तक यह ज्ञानानंद मय नहीं रह सकता
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