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04 श्री आपकाचार जी
गाथा-१७१,१७२ NO. तत्व, निज शुद्धात्मा है, वह जानने में आता है तथा तीनों कुज्ञान कुमति, कुश्रुत, विचार चलना ही आर्त-रौद्र ध्यान है। कहा है - कुअवधि ज्ञान विला जाते हैं इनसे मुक्त हो जाता है अर्थात् उसे सुमति, सुश्रुत,
धर्म धर्म सब कोई कहें,धर्म न जाने कोय। ५ सुअवधि ज्ञान हो जाता है फिर वहाँ मिथ्या, माया, निदान शल्य दिखाई नहीं देतीं ।
आतम को जाने बिना,धर्म कहाँ से होय॥ अर्थात् उसकी शल्ये भी विला जाती हैं।
आत्मा का ममल स्वभाव ही निश्चय से उत्तम धर्म है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि यहाँ कोई प्रश्न करे कि जिसे सम्यक्दर्शन, निज शुद्धात्मानुभूति हो गई है। ममल स्वभाव किसे कहते हैं ? वह अन्तरात्मा धर्म ध्यान की आराधना करता है उससे उसे यह लाभ होता है: उसका समाधान करते हैं कि विमल निर्मल, अमल और ममल यह चार शब्द परन्तु जो अभी मिथ्यादृष्टि है उसे निज शुद्धात्मानुभूति नहीं हुई, वह भी यह धर्म हैं। कहने और देखने में एक से लगते हैं परन्तु इनका स्वरूप भिन्न-भिन्न है वह ध्यान की आराधना कर सकता है या नहीं? और इससे उसे भी कुछ लाभ मिलेगा। समझना है। या नहीं?
विमल अर्थात् बीत गया मल, मल अर्थात् राग-द्वेषादि विकारी भाव । उसका समाधान करते हैं कि भाई! धर्म ध्यान की आराधना तो सभी जीव निर्मल-अर्थात् निकल गया मल । अमल-अर्थात् मल ही नहीं है। ममल- अर्थात् कर सकते हैं परन्तु जो सम्यकदृष्टि हैं, उन्हें उसके स्वाद का आनंद आयेगा। मल होते हुए भी जो उनसे रहित भिन्न त्रिकाल शुद्ध है उसे ममल स्वभाव कहते हैं। जैसे-किसी व्यक्ति ने कोई स्वादिष्ट वस्तु खाई हो तो जब वह बनती है या उसका यहाँ पुन: प्रश्न होता है कि मल होते हुए भी जो उनसे रहित भिन्न त्रिकाल नाम लिया जाता है, तो उसका स्वाद आने लगता है, मुँह में पानी आने लगता है,खा शुद्ध है उसे ममल स्वभाव कहते हैं। यह बात समझने में नहीं आई ऐसा कैसे हो नहीं रहा परन्तु अनुभव होने से रस आने लगता है, इसी प्रकार जिसे निज सकता है, इसे स्पष्ट समझाइये? । शुद्धात्मानुभूति हो गई है, उसे आत्मा का नाम लेने, चर्चा करने, ध्यान करने पर यह तारण स्वामी की बड़ी अपूर्व साधना शैली है। शब्द रचना भी बड़ी आनंद रस आने लगता है। जिसे अभी अनुभूति नहीं हुई है परन्तु जो श्रद्धापूर्वक उसए स्वतंत्र है। यह आगम और अनुभव से प्रमाणित शुद्ध अध्यात्म की बात है। ओर का प्रयास कर रहा है, उसे भी वह उपलब्ध होगी यह निश्चित बात है। जो सच्चे ममल शब्द का प्रयोग जैनाचार्यों ने तथा अन्य ज्ञानियों ने बहुत ही कम किया देव गुरू शास्त्र की श्रद्धापूर्वक उनके कथनानुसार शुद्ध धर्म निज शुद्धात्मा की श्रद्धा है; जबकि तारण स्वामी का पूरा साधना क्रम ममलहममल,शुद्धहशुद्ध, ध्रुव, ध्रुव, करता है और धर्म ध्यान की आराधना करता है, उसे वर्तमान जीवन में समता ध्रुव तत्व से ही भरा हुआ है, ऐसे ज्ञानी साधक विरले ही होते हैं जिन्होंने अध्यात्म को शान्ति मिलती है, पुण्य बंध होता है और इसी के आश्रय से धर्म की उपलब्धि संगीतमय कर दिया। जहाँ देखो वहाँ अप्पा शुद्धप्पा परमप्पा ही दिखाई देता है, पूरा अर्थात् सम्यक्दर्शन भी होता है; इसलिये धर्म ध्यान की आराधना तो प्रत्येक जीव ममलपाहुड़ शास्त्र ही रच दिया। यह ममल स्वभाव अनुभवगम्य ही है। जैसे सोना को करना चाहिये । आर्त-रौद्र ध्यानों से बचने का भी यही उपाय है। विकथा, किट्टिका सहित खान से निकलता है; परन्तु वहाँ पर भी वह स्वभाव से शुद्ध है। विषय-कषाय, विभावों से बचने के लिये धर्म ध्यान की आराधना ही वर्तमान में खोट सहित आभूषण रूप में है परन्तु स्वभाव से शुद्ध है। आगे शुद्ध
कार्यकारी है, भेदज्ञान तत्वनिर्णय सब इसी के अन्तर्गत आते हैं। जीव का हितकारी होकर रखा जाये तब भी स्वभाव से शुद्ध है और यह बात वर्तमान में प्रत्यक्ष व्यवहार र एकमात्र धर्म ध्यान ही है।
5 से अनुभवगम्य है, जिसका साक्षी स्वर्णकार है। वैसे ही यह जीव द्रव्य अनादि से , धर्म ध्यान की आराधना करने से उत्तम क्षमा धर्म पैदा हो जाता है। सब जीवों पुद्गल कर्म संयोग में मिला हुआ है परन्तु वहाँ भी यह स्वभाव से शुद्ध है। वर्तमान के प्रति क्षमा मैत्री समभाव आजाता है। क्रोध कषाय विला जाती है। उत्तम तत्व का में इस मनुष्य पर्याय में कर्म संयोग में है परन्तु यहाँ भी स्वभाव से शुद्ध है और जब प्रकाश हो जाता है, अपना ममल आत्म स्वभाव दिखाई देने लगता है। अपना अर्थात् यह सिद्ध दशा में पूर्ण शुद्ध हो जायेगा तब भी स्वभाव से शुद्ध है । इसके साक्षी मैं आत्मा हूँ यह शरीरादि नहीं हूँ ऐसे स्व का विचार करना ही धर्म ध्यान है। पर का केवलज्ञानी सर्वज्ञ परमात्मा हैं । इसे ममल स्वभाव कहते हैं और जो
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