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PO4 श्री श्रावकाचार जी
गाचा-१०१,१७२ c o m अपने परिणामों की संभाल करना हमेशा इसी का चिन्तन विचार करना।
और परिग्रहानंदी, जैसे निमित्त मिलते हैं वैसा लीन हो जाता है। धर्म ध्यान करने के ३. विपाक विचय-पूर्व में बांधे हुए कर्मोदय को समताशान्तिपूर्वक सहना, लिये पुरुषार्थ करना पड़ता है; क्योंकि यह अभी तक जीव के संस्कार अभ्यास में । देखो पूर्व में मैंने ऐसे खोटे कर्म किये होंगे, उसी का परिणाम तो यह सामने मिल रहा , आया नहीं है। है। इसमें किसका दोष है? जैसा कर्म बन्ध किया है उसका वैसा फल तो भोगना ध्याता अर्थात ध्यान करने वाले को अपना लक्ष्य शद्ध आत्मा की तरफ पड़ेगा। समता शान्ति से भोगें तो निर्जरा हो जायेगी,पुन: नहीं बंधेगा। रोयेंगे,खेद-२ रखकर मन की चंचलता को रोकने के लिये ॐ ह्रीं श्रीं इन पदों का आलम्बन लेकरया खिन्न, आकुल-व्याकुल होंगे, राग-द्वेष करेंगे तो पुन: ऐसा ही कर्म बन्ध होगा, जो तोइनकोजपना चाहिये या हृदय स्थान में अथवा दोनों भौंहों के मध्य मेंया नाभिकमल आगे चलकर फिर भोगना पड़ेगा, ऐसा विचार करना समता में रहना।
८. में या मस्तक पर विराजमान करके इनको ज्योति स्वरूप चमकता देखना चाहिये ४. संस्थान विचय-संसार के स्वरूप का विचार करना।
है और शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्मतत्वं का लक्ष्य बनाकर अपने शुद्ध आत्मा तक पहुँच जाना चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष संठान।
S चाहिये। वहाँ से उपयोग हटे, तब फिर इन्हीं पदों को देखना चाहिये, पंच परमेष्ठी तामें जीव अनादि से,भरमत हैं बिन ज्ञान॥
ॐ चौबीस तीर्थंकर के गुणों का विचार करते रहना चाहिये। इस माध्यम से अपना लक्ष्य संसार शरीर भोगों के स्वरूप का विचार कर वैराग्य का चिन्तन करना।ॐ अपना इष्ट जो निजशुद्धात्मा है उसी तक पहुँचने का प्रयास करते रहना चाहिये। यह ह्रीं श्रीं इन पदों के माध्यम से अपने स्वरूप का विचार करना और इन्हीं पदों के प्रारंभिक अवस्था में धर्म ध्यान करने की विधि है। धर्म ध्यान करने से क्या होता स्मरण में लीन रहना।
ॐकार, पंच परमेष्ठी पद का वाचक है अर्थात् अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, इसका वर्णन आगे करते हैंउपाध्याय और साधु इन पदों में जो हो गये हैं, उनके स्वरूप का विचार करना और धर्म ध्यान त्रिलोकच, लोकालोकंच सास्वत । ऐसा ही मैं हूँ, इन पदों में अपने आपको स्थित देखना। इसका विस्तृत विवेचन
कुन्यानं त्रि विनिर्मुक्तं,मिथ्या माया न दिस्टते ॥१७१ ॥ पदस्थ ध्यान में आयेगा। ह्रींकार में चौबीस तीर्थंकर गर्भित हैं। तीर्थंकरों के पंचकल्याणक का विचार
उत्तम षिमा उत्पाते, उत्तम तत्व प्रकासकं । करना तथा उस रूप अपने को देखना। निश्चय से शुद्ध आत्मा ही अरिहंत है, शुद्ध ममलं अप्प सद्भावं, उत्तम धर्म च निस्चयं ॥ १७२॥ आत्मा ही सिद्ध है,शुद्ध आत्मा ही आचार्य है,शुद्ध आत्मा ही उपाध्याय है और शुद्ध अन्वयार्थ-(धर्मध्यानं त्रिलोकंच) धर्म ध्यान से त्रिलोक और (लोकालोकंच आत्मा ही साधु है तथा शुद्ध आत्मा ही श्री ऋषभादि महावीर पर्यंत चौबीस तीर्थंकर सास्वतं) लोकालोक में जो शाश्वत है वह जानने में आता है (कुन्यानं त्रि विनिर्मुक्त) है और मैं भी शुद्ध आत्मा हूँ, इसी ध्यान में लगे रहना।
तीनों प्रकार के कुज्ञान से मुक्त हो जाता है (मिथ्या माया न दिस्टते) फिर वहाँ श्रींकार, मोक्ष लक्ष्मी सिद्ध दशा को कहते हैं: जहाँ परमानंदमयी अशरीरी मिथ्या मायादिशल्य दिखाई नहीं देतीं। ध्रुवतत्व परमात्म पद प्रगट हो जाता है, इसी स्वरूपमय अपने को देखना।
(उत्तम षिमा उत्पाद्यते) उत्तम क्षमा धर्म पैदा हो जाता है (उत्तम तत्व चित्त का किसी एक विषय पर एकाग्र हो जाने का नाम ध्यान है। संसार में 5 प्रकासक) उत्तम तत्व का प्रकाश हो जाता है (ममलं अप्प सद्भाव) अपना ममल कर्म संयोगी दशा में आर्त-रौद्र ध्यान अपने आप संस्कार वश होते हैं। क्योंकि आत्म स्वभाव दिखाई देने लगता है (उत्तम धर्म च निस्चय) निश्चय से यही उत्तम उन्हीं सब संयोगों में जीव लिप्त तन्मय है, तो वह अपने आप होते रहते हैं अर्थात् धर्म है ऐसी दृढ़ प्रतीति हो जाती है। आर्त ध्यान के इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, पीड़ा चिन्तवन, निदान बंध जैसे योग
विशेषार्थ- धर्म ध्यान करने से क्या होता है ? इसका वर्णन किया जा रहा है। संयोग मिलते हैं, वैसे होता रहता है तथा रौद्र ध्यान के हिंसानंदी, मृषानंदी, चौर्यानंदी
धर्म ध्यान की आराधना करने से त्रिलोक में और लोकालोक में जो शाश्वत जीव
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