________________
श्री आवकाचार जी
अनुभव में आयेगा ।
शुद्ध नय की दृष्टि से देखा जाये तो सर्व कर्मों से रहित चैतन्य मात्र देव अविनाशी आत्मा अंतरंग में स्वयं विराजमान है। यह प्राणी, पर्याय बुद्धि बहिरात्मा उसे बाहर ढूंढता है, यह महा अज्ञान है ।
इसी बात को ब्र. शीतल प्रसाद जी ने तारण तरण श्रावकाचार ग्रन्थ की टीका में कहा है
-
धर्म कहीं बाहर नहीं है, न किसी चैत्यालय में है, न शास्त्र में है, न किसी तीर्थ
में है, न किसी गुरू के पास से मिलता है, न क्रियाकांड में है। धर्म तो हर एक आत्मा
के भीतर है। हर एक आत्मा का अपना निज स्वभाव है। भेद दृष्टि से देखें या कहें तो उसे सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्रमय कहेंगे; परंतु अभेद नय से देखें या कहें तो यह एक मात्र स्वानुभवरूप या ज्ञान चेतनामात्र है। इस धर्म में राग-द्वेषादि की संकल्प - विकल्प की कोई उपाधि नहीं है ।
यहाँ कोई प्रश्न करे कि वेदान्त और सांख्य मत में भी ऐसा ही कहा है फिर यह साम्प्रदायिकता भेदभाव क्यों है ?
mask sex is met résis week resis
उसका समाधान करते हैं कि भगवान महावीर के मत स्याद्वाद अनेकान्त में तो कोई भेद भाव साम्प्रदायिकता है ही नहीं। वहाँ तो प्राणी मात्र भगवान आत्मा है और सभी में वह परम ज्योति परमानंद स्वरूप परम ब्रह्म परमात्मा विराजमान है। कथन पद्धति अपनी-अपनी है, मान्यता और बाहरी आचरण के भेदभाव, साम्प्रदायिक बंधन हैं। तारण स्वामी ने तो इन्हीं सब भेदभाव, साम्प्रदायिक जाति-पांति के बंधनों को तोड़कर प्राणी मात्र को धर्म का अधिकारी बताया है। जो जीव चाहे, ऐसे अपने सत्य धर्म को स्वीकार कर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। परम तत्व सत्य को जो स्वीकार करे उसी का कल्याण होगा फिर वह कोई भी हो ।
यहाँ प्रश्न होता है कि हमने ऐसे शुद्ध धर्म निज शुद्धात्मानुभूति को जान लिया, मान लिया तो अब तो और कुछ नहीं करना ? अब जो कुछ जैसा होना है होने दें ?
उसका समाधान करते हैं कि हे भाई! सद्गुरुदेव तारण स्वामी स्वयं इस बात 5 को आगे बता रहे हैं कि जिसने ऐसे शुद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया जान लिया, मान लिया जो अन्तरात्मा, सम्यक्दृष्टि हो गया वह फिर धर्म ध्यान की साधना आराधना करता है। बाहर में पर का तो कुछ नहीं करता क्योंकि वह तो जो होना है वह क्रमबद्ध निश्चित है, तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है और होगा फिर वह पुद्गल शरीरादि
१०८
गाथा- १७०
द्रव्य का कर्ता नहीं होता; परन्तु वर्तमान में अपनी पात्रतानुसार जो विभाव परिणमन चलता है, उसमें वह अपनी सुरत रखने ज्ञायक निर्भय रहने और स्वभावमय रहने का पुरुषार्थ करता है और यह पुरुषार्थ धर्म निज शुद्ध स्वभाव के आश्रय ही होता है। धर्म ध्यान की कैसी आराधना करता है इसका वर्णन आगे करते हैं - धर्म ध्यानं च आराध्यं, उवंकारं च स्थितं ।
ह्रींकारं श्रींकारं च त्रि उवंकारं च संस्थितं ॥ १७० ॥ अन्वयार्थ - (धर्म ध्यानं च आराध्यं) धर्म ध्यान की आराधना करता है
( उवंकारं च स्थितं) वह अपने आपको ओंकार स्वरूप में स्थित देखता है (ह्रींकारं श्रींकारं च) ह्रींकार और श्रींकार में (त्रि उवंकारं च संस्थितं) तथा तीनों ॐ ह्रीं श्रींकार स्वरूप में स्थित होता है।
विशेषार्थ यहाँ जिसने शुद्ध धर्म को जान लिया, स्वीकार कर लिया, ऐसा अन्तरात्मा अव्रतसम्यकदृष्टि क्या करता है ? इसके समाधान स्वरूप सद्गुरू कहते हैं कि वह धर्म ध्यान की आराधना करता है।
यहाँ प्रश्न होता है कि साधना, आराधना में क्या भेद है ?
उसका समाधान करते हैं कि साधना अभेदपने में रहने को कहते हैं अर्थात् शुद्ध स्वभाव मय रहना पूर्ण स्थिरता सिद्धि कहलाती है। क्षणिक स्थिरता और उसका क्रमश: विकास साधना है। आराधना भेद-विकल्प पूर्वक होती है अर्थात् शुद्ध-बुद्ध अविनाशी चेतन तत्व भगवान आत्मा मैं हूँ ऐसी श्रद्धा सहित उस रूप अपने को देखना इसमें भेद विकल्प रहता है। आराधना-मिथ्यादृष्टि और सम्यकदृष्टि चौथे गुणस्थानवर्ती तक होती है। पाँचवें गुणस्थान से साधना का क्रम प्रारम्भ हो जाता है। जिसने अपने शुद्ध धर्म निजशुद्धात्म स्वरूप का अनुभव कर लिया, देख लिया है श्रद्धान कर लिया है परन्तु अभी अव्रत दशा में है कर्म संयोग है, विभाव परिणमन चल रहा है तो अब ऐसे में वह अपने स्वभाव की आराधना करता है। धर्म ध्यान का अभ्यास करता है। धर्म ध्यान के चार भेद हैं
-
१. आज्ञा विचय, २. अपाय विचय, ३. विपाक विचय, ४. संस्थान विचय । १. आज्ञाविचय - सच्चे वीतरागी देव, गुरू, शास्त्र के श्रद्धान सहित उन्होंने क्या कहा है, धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है, इसका विचार करना ।
२. अपाय विचय- इन-इन परिणामों से ऐसे-ऐसे कर्म बन्ध होते हैं, हमेशा