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७० श्री श्रावकाचार जी
गाथा-१५९ P OON जे मुक्ति सुव्यं नर कोपि साध,समिक्त सुद्ध ते नर धरेत्वं ।
३. शक्ति के अविभाग प्रतिच्छेद (अंश) घटते भी हैं, बढ़ते भी हैं यह वस्तु रागादयो पुन्य पापाय दूर,ममात्मा सुभाव धुव सुद्ध दिस्ट ॥६॥ स्वभाव है इसलिये वह नित्य नियत एक रूप दिखाई नहीं देता। सुद्धं प्रकासं सुद्धात्म तत्वं, समस्त संकल्प विकल्प मुक्त।
४. वह दर्शन ज्ञान आदि अनेक गुणों से विशेष रूप दिखाई देता है। रत्नत्रय लंकृत विस्वरूप,तत्वार्थ साधं बहुभक्ति जुक्तं ॥१५॥
५. कर्म के निमित्त से होने वाले मोह, राग-द्वेष आदि परिणामों कर सहित ७ इसी बात को देवसेनाचार्य तत्वसार में कहते हैं -
वह सुख-दु:ख रूप दिखाई देता है। जो खलु सुद्धो भावो सा अप्पणितं च दसणं णाणं।
यह सब अशुद्ध द्रव्यार्थिक रूप व्यवहार नय का विषय है। चरणपितंच भणियं सा सुद्धा यणा अहवा॥८॥
शुद्ध द्रव्यार्थिक नय क्या है ? इसे समयसार में कहते हैंजो निश्चय से शुद्ध आत्मा का स्वभाव है वह आत्म रूप है वही सम्यकदर्शन,
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णय णियद। सम्यक्ज्ञान व सम्यक्चारित्र कहा गया है उसी को शुद्ध चेतना कहते हैं।
अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ॥ १४॥ इसी बात को अमृतचन्द्राचार्य समयसार कलश में कहते हैं
जो आत्मा को अबद्ध, बन्ध रहित और पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्व रहित, आत्म स्वभाव परभाव भिन्नमापूर्णमाद्यंत विमुक्तमेकम्।
नियत, चलाचलता रहित, विशेष रहित, अन्य के संयोग से रहित देखता है वह विलीन संकल्प विकल्प जाल प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति ॥ १०॥ शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है उसे शुद्ध नय जानो।
शुद्ध नय आत्म स्वभाव को प्रगट करता है। वह आत्म स्वभाव को पर द्रव्य, यहाँ शुद्ध धर्म,शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय चल रहा है। जिसके आश्रय से पर के भाव तथा पर द्रव्य के निमित्त से होने वाले अपने विभाव, ऐसे परभावों से शुद्धात्मानुभूति सम्यकदर्शन होता है, जो मोक्ष का मूल आधार है। भिन्न प्रगट करता है और वह आत्म स्वभाव सम्पूर्ण रूप से पूर्ण है। समस्त लोकालोकS जो जीव ऐसे शुद्ध धर्म, निज शुद्धात्मा का आश्रय, श्रद्धान करता है, वह का ज्ञाता है, ऐसा प्रगट करता है। (क्योंकि ज्ञान में भेद, कर्म संयोग के कारण से है,९ अन्तरात्मा सम्यक्दृष्टि होता है। मोक्षमार्ग के लिये, संसार के दुःख जन्म-मरण से शुद्ध नय में कर्मगौण है) और वह आत्मस्वभाव को आदि अन्त से रहित प्रगट करता बचने के लिये सुख शान्ति आनंदमय होने के लिये अपने ऐसे निजशुद्ध स्वभाव का है अर्थात जो किसी से उत्पन्न नहीं किया गया और कभी भी किसी से ही श्रद्धान करना आवश्यक है। इसी से सत्य धर्म की प्राप्ति और मुक्ति का मार्ग बनता जिसका विनाश नहीं होता, ऐसे पारिणामिक भाव वाला है।
र है। बाहर की किसी क्रिया कर्म से धर्म तीन काल नहीं होता। आत्म स्वभाव सर्व भेद भावों से रहित एकाकार है, जिसमें समस्त संकल्प इसी बात को अमृतचन्द्राचार्य समयसार कलश में और स्पष्ट करते हैं - विकल्पों के समूह विलीन हो गये हैं।
भूत भातमभूतमेव रभसान्निभिद्यबंध सधीः। द्रव्य कर्म,भाव कर्म,नो कर्म आदिपुद्गल द्रव्यों में अपनी कल्पना सो
यद्यत: किलकोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात्॥ संकल्प है और ज्ञेयों के भेद से ज्ञान में भेद ज्ञात होना सो विकल्प है।
आत्मात्मानुभवैकगम्य महिमा व्यक्तोऽयमास्ते धुवं। ऐसा शुद्ध नय आत्म स्वभाव को प्रगट करता है। आत्मा पाँच प्रकार से अनेक
नित्य कर्म कलंक पंक विकलो देवः स्वयं शाश्वतः॥१२॥ र रूप दिखाई देता है।
यदि कोई बुद्धिमान पुरुष अपने त्रिकरण रूप प्रबल पुरुषार्थ से मोह को चूर , १. अनादिकाल से कर्म पुद्गल के संबंध से बंधा हुआ कर्म पुद्गल के स्पर्श कर भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों समयों के कर्म बन्धों को भेदज्ञान के बल से शीघ्र वाला दिखाई देता है।
भेदकर अपने अन्तरंग को देखता है तो उसे सदा अनादि अनंत एक ज्ञायक स्वभाव X २. कर्म के निमित्त से होने वाली नर-नारक आदि पर्यायों में भिन्न-भिन्न वाला कर्मों के कलंकों से रहित अपने स्वानुभव से ही जिसकी महिमा जानी जा स्वरूप दिखाई देता है।
सकती है, ऐसा यह आत्मा जो स्वयं शाश्वत देव है, परमात्मा है, निश्चय से प्रगट
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