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PO4 श्री श्रावकाचार जी
गाथा-१६. DOO यहाँ कोई कहे कि हमने आत्मा को देखा तो है ही नहीं फिर हम कैसे मान लें कि करने की अपेक्षा द्रव्य दृष्टि से बात कही जा रही है, यहाँ दशा पर्याय की बात नहीं है। हम आत्मा हैं? तो उससे कहते हैं कि भाई! तूने अपने पिताजी को देखा है कि यही क्योंकि जैसे स्वर्णकार अपने बालक को शुद्ध सोने के सारे गुण बताता है और फिर तेरे पिताजी हैं। जैसा माँ ने बताया और लोगों ने कहा वैसा सब मानने लगा। वैसे ही , खोट मिले हुए सोने में उसकी परख करना सिखाता है। सोने में खोट कैसे मिलती है । यह जिनवाणी माँ और ज्ञानी सद्गुरू कह रहे हैं इनको मानले तो तेरा भला हो जायेगा और कैसे निकाली जाती है यह भी सब बताता है और वह सब बातों में निपुण हो ७ । उस मान्यता में तो मरता रहा है और मरता रहेगा। अपना भला करना है तो अभी भी जाता है तब अपनी दुकान पर बैठाता है। इसी प्रकार यहाँ हमें सबसे पहले शुद्ध, चेत जा, सत्यधर्म वस्तु स्वरूप को जैसा का तैसा स्वीकार कर तो भला होगा।
आत्मा के गुण जानना है, लक्ष्य में लेना है और फिर अशुद्ध दशा में उन्हें देखना है आगे उसी सत्य धर्म का और विशेष कथन करते हैं
४ क्योंकि जब तक हमें अपनी सत्ता शक्ति गुणों का पता नहीं चलेगा. तब तक उन्हें धर्म च आत्म धर्म च, रत्नत्रयं मयं सदा।
प्रगट करने का पुरुषार्थ भी नहीं होगा। प्रत्येक जीव आत्मा सिद्ध के समान शुद्ध, चेतना लण्यनो जेन,ते धर्म कर्म विमुक्तयं ॥१९॥
अनन्त चतुष्टयधारी रत्नत्रयमयी ज्ञानानंद स्वभावी है। यह गुण कहीं से लाना नहीं अन्वयार्थ- (धर्मच आत्म धर्मच) धर्म तो आत्म धर्म ही है (रत्नत्रयं मयं सदा)
ॐ है, आना नहीं है, स्वयं में हैं; परन्तु हम अपनी स्व सत्ता शक्ति से अनभिज्ञ होने के
8कारण उन्हें प्रगट करने का पुरुषार्थ नहीं कर रहे। जिन्होंने स्वसत्ता शक्ति को जान जो त्रिकाल रत्नत्रयमयी अर्थात् सुख शान्ति आनंद से परिपूर्ण है (चेतना लष्यनो
लिया और पुरुषार्थ किया तो वह सब कर्मों से मुक्त होकर स्वयं सिद्ध परमात्मा जेन) जिसका चेतना लक्षण अर्थात ज्ञानानंद स्वभाव है (ते धर्म कर्म विमुक्तयं) वह 5
र हो गये। इसी प्रकार हम भी इस बात को स्वीकार करें. वर्तमान में कर्म संयोगी दशा धर्म, सब कर्मों से रहित है, मुक्त है।
में अशुद्ध पर्याय तो है परन्तु वह मेरा स्वभाव नहीं है। मेरा स्वभाव तो सब कर्म मलों यदि कोई जग में धर्म है तो एक आतम धर्म है।
से रहित सिद्ध के समान ध्रुव अविनाशी परम ब्रह्म परमात्म स्वरूप ही है। अनादि से सद्प्राप्ति में जिसके न आवश्यक,कोई भी कर्म है।
कर्म संयोग है परन्तु वह पर्याय में है, स्वभाव में नहीं है. जो मिला है वह निकल इस आत्मिक सद्धर्म में रे,शान सिन्धु अथाह है।
सकता है। जैसे- स्वर्ण में से खोट निकालने की प्रक्रिया होती है. उसे अग्नि में यह आत्मिक सद्धर्म ही, चिर सुख सदन की राह है।
5 तपाया गलाया जाता है फिर उसकी शुद्धि के लिये सुहागा,तेजाब आदि डाला जाता (चंचल जी)
है तो वह शुद्ध हो जाता है। इसी प्रकार जब हमें अपने शद्ध स्वभाव का श्रद्धान होगा विशेषार्थ-यहाँ शद्ध धर्म का विशेष कथन कर रहे हैं कि रत्नत्रयमयी अर्थात् और दस खोट मिली कर्म संयोगी अशाट पर्याय का भान होगा और हम अपना शट त्रिकाल सुख शान्ति आनंद से परिपूर्ण जो चेतना लक्षण मात्र है, वह धर्म सर्व कर्मों से है स्वभाव ही प्रगट करना चाहेंगे तो ध्यान की अग्नि, संयम तप की भट्टी में गलाना रहित मुक्त है।
होगा। भेदज्ञान तत्वनिर्णय के द्वारा शुद्ध करना होगा। इसकी प्रक्रिया साधु पद से यहाँ कोई प्रश्न करे कि जीव का चेतना लक्षण अर्थात् ज्ञानानंद स्वभाव ही प्रारंभ होकर सिद्ध पद में पूर्ण होती है। यह रहस्य सद्गुरुदेव स्वयं ही आगे बतायेंगे, जीव की अपेक्षा सत्य धर्म है और इसी के आश्रय से मुक्ति होती है यह बात तो समझ
हाता ह यह बात ता समझ यहाँ जो धर्म का मूल आधार, श्रद्धान दृष्टि का विषय है स्वभाव को समझने स्वीकार में आ गई परन्तु वह हमेशा रत्नत्रयमयी अर्थात् सुख शान्ति आनंद से परिपूर्ण है और
दसे परिपूर्ण है और करने की बात है। शुद्ध आत्मा अर्थात् शुद्ध स्वभाव त्रिकाल रत्नत्रयमयी चेतना सब कर्मों से रहित है यह बात समझ में नहीं आई क्योंकि वर्तमान में तो जीव कर्म
लक्षण वाला सर्व कर्मों से रहित ही है। इसी बात को सद्गुरुदेव प्रारंभ में मालारोहण संयोगी दशा में है। चिन्ता, आकुलता विषाद में भी रहता है फिर इसको कैसे माना से ही कर रहे हैंजाये? केवलज्ञानी अरिहन्त सिद्ध की अपेक्षा तो हो सकता है पर वर्तमान में ऐसा
उर्वकार वेदति सुद्धात्म तत्वं,प्रनमामि नित्यं तत्वार्थ साध। मानना तो उचित नहीं लगता?
न्यान मयं संमिक् दर्शनेत्वं, समिक्त चरनं चैतन्य रूपं ॥१॥ इसका समाधान करते हैं कि भाई! यहाँ धर्म की अपेक्षा, श्रद्धान और निर्णय