SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७ श्री आवकाचार जी करते हैं, उनके लिये सूर्य का उदय होने पर भी अंधकार जैसा ही है। जिसके द्वारा अभय, आहार, औषधि और शास्त्र का दान करने पर मुनियों को सुख उत्पन्न होता है, वह ग्रहस्थ कैसे प्रशंसा के योग्य न होगा ? जो मनुष्य दान देने के योग्य होकर भी पात्रों के लिये भक्ति पूर्वक दान नहीं देता है वह मूर्ख परलोक में अपने सुख को स्वयं ही नष्ट करता है । दान से रहित गृहस्थ आश्रम को पत्थर की नाव के समान समझना चाहिये । उस गृहस्थाश्रम रूपी पत्थर की नाव पर बैठा हुआ मनुष्य संसार रूपी समुद्र में डूबता ही है, इसमें संदेह नहीं है। प्राणी दया धर्म रूपी वृक्ष की जड़ है, व्रतों में मुख्य है, संपत्तियों का स्थान है और गुणों का भंडार है; इसलिये उसे विवेकी जनों को अवश्य करना चाहिये । मनुष्य में सब ही गुण जीव दया के आश्रय से इस प्रकार रहते हैं जिस प्रकार कि पुष्पों की लड़ियाँ सूत के आश्रय से रहती हैं। जो चैतन्य स्वरूप आत्मा कर्मों तथा उनके कार्यभूत रागादि विभावों और शरीरादि से भिन्न है उस शाश्वतिक आनन्दस्वरूप पद को अर्थात् मोक्ष को प्रदान करने वाली आत्मा का सदा विचार करना चाहिये । जिस प्रकार बत्ती दीपक की सेवा करके उसके पद को प्राप्त कर लेती है; अर्थात् दीपक स्वरूप परिणम जाती है, उसी प्रकार अत्यन्त निर्मल ज्ञानरूप असाधारण मूर्ति स्वरूप सिद्ध ज्योति की आराधना करके योगी भी स्वयं उसके स्थिर पद अर्थात् सिद्ध पद को प्राप्त कर लेता है; अथवा वह सम्यक्ज्ञान के द्वारा विकल्प समूह से रहित होता हुआ सिद्ध स्वरूप को प्राप्त होकर ऐसा हो जाता है कि तीन लोक के चूड़ामणि रत्न के समान उसको देव भी नमस्कार करते हैं । निर्मल बुद्धि को धारण करने वाले तत्वज्ञ पुरुष की दृष्टि निरन्तर शुद्धात्म स्वरूप में स्थित होकर एकमात्र शुद्धात्म पद अर्थात् मोक्ष पद को प्राप्त करती है; किंतु अज्ञानी पुरुष की दृष्टि अशुद्ध आत्म स्वरूप या पर पदार्थों में स्थित होकर संसार को बढ़ाती है। ] यह सिद्धात्मा रूप तेज विश्व को देखता और जानता है, आत्मा मात्र mohnewsok swor remo २६८ रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र 256 से उत्पन्न आत्यन्तिक सुख को प्राप्त करता है, नाश व उत्पाद से युक्त होकर भी निश्चल (ध्रुव) है, मुमुक्षु जनों के हृदय में एकत्रित होकर रहता है, संसार के भार से रहित है, शांत है, सघन आत्म प्रदेश स्वरूप तथा असाधारण है । जो संयमी कर्म के क्षय अथवा उपशम के कारणवश तथा गुरू के सदुपदेश से आत्मा की एकता विषयक निर्मल ज्ञान का स्थान बन गया है, जिसने समस्त परिग्रह का परित्याग कर दिया है; तथा जिसका मन निरन्तर आत्मा की एकता की भावना के आश्रित रहता है, वह संयमी पुरुष लोक में रहता हुआ भी इस प्रकार पाप से लिप्त नहीं होता जिस प्रकार कि तालाब में स्थित कमल पत्र पानी से लिप्त नहीं होता है । मोह के उदय से जो मोक्ष के विषय में भी अभिलाषा होती है वह सिद्धि मुक्ति को नष्ट करने वाली है; इसलिये सत्यार्थ अर्थात् निश्चय नय को ग्रहण करने वाला मुनि क्या किसी भी पदार्थ के विषय में इच्छा युक्त होता है ? अर्थात् नहीं होता । इस प्रकार मन में उपयुक्त विचार करके शुद्धात्मा से संबंध रख हुए साधु को परिग्रह से रहित होकर निरन्तर तत्व ज्ञान में तत्पर रहना चाहिये । [D] चैतन्य स्वरूप आत्मा के चिन्तन में मुमुक्षु जन के रस, नीरस हो जाते हैं। सम्मिलित होकर परस्पर चलने वाली कथाओं का कौतूहल नष्ट हो जाता है, इन्द्रिय विषय विलीन हो जाते हैं, शरीर के भी विषय में प्रेम का अन्त हो जाता है, एकान्त में मौन प्रतिभाषित होता है, तथा वैसी अवस्था में दोषों के साथ मन भी मरने की इच्छा करता है । धर्म चर्चा का विषय नहीं, अनुभूति का विषय है । भेदज्ञान के द्वारा जानकर जो इसका ध्यान करता है उसको प्रत्यक्ष अनुभूति में आता है कि यह शरीर आदि पुद्गल भिन्न है और मैं चैतन्य लक्षण जीव आत्मा भिन्न हूँ तथा यह कर्म भी मुझसे भिन्न हैं, मैं तो सिद्ध स्वरूपी परम ब्रह्म परमात्मा हूँ । निश्चय नय के अभिप्राय अनुसार आत्मा का आत्मा में आत्मा लिये तन्मय होना ही निश्चय सम्यक्चारित्र है, ऐसे चारित्रशील योगी को ही निर्वाण की प्राप्ति होती है। ॥ चारितं खलु धम्मो
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy