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Rao श्री आचकाचार जी
__ जिनदेव देह देवालय में विराजमान है परन्तु जीव (ईंट पत्थरों के) देवालयों में सकते हैं। जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया है उनकी दृष्टि, श्रद्धान क्या होता है, उनके दर्शन करता है, यह मुझे कितना हास्यास्पद मालूम होता है। यह बात ऐसी ही वह अपने आपको कैसा जानते, मानते हैं इसका वर्णन किया जा रहा है। हमें भी । है, जैसे कोई मनुष्य सिद्ध हो जाने पर भिक्षा के लिये भ्रमण करे।
. सत्य को उपलब्ध करना है तो ऐसा श्रद्धान किये बिना काम चलने वाला नहीं है। मूढा देवलि देउ णवि, णवि सिलि लिप्पइवित्ति।
सत्य को उपलब्ध सम्यक्दृष्टि का अंतर श्रद्धान कैसा होता है, इसका वर्णन देहा देवलि देउ जिणु,सो बुज्यहि समवित्ति॥४४॥ आगे की गाथा में करते हैंहे मूढ ! देव किसी देवालय में विराजमान नहीं है, इसी प्रकार किसी पत्थर अरिहंत देव तिस्टंते, हींकारेन सास्वतं । लेप अथवा चित्र में भी देव विराजमान नहीं है। जिनदेव तो देह देवालय में रहते हैं.
उवं ऊर्ध सद्धावं, निर्वानं सास्वतं पदं ॥४६॥ इस बात को तू समचित्त से समझ। तित्थाइ देउलि देउ जिणु, सव्वु वि कोइ भणेई।
अन्वयार्थ-(निर्वानं सास्वतं पदं) निर्वाण, अनाद्यनिधन शाश्वत पद है (उवं देहा देउलि जो मुणइ, सो बाहको विहवे॥४५॥
ऊर्ध सद्भाव) जिसमें ब्रह्म स्वरूप सिद्ध परमात्मा हमेशा रहते हैं (हींकारेन सास्वतं) सब कोई कहते हैं कि जिनदेव तीर्थ में और देवालय में विद्यमान है परन्तु जोर
तीर्थकर स्वरूप निज शुद्धात्मा भी शाश्वत है (अरिहंत देव तिस्टते) जो अरिहंत जिनदेव को देह देवालय में विराजमान समझता है, ऐसा पंडित कोई विरला ही
देव स्वरूप इस देह में विराजमान हैं। होता है।
र विशेषार्थ- गजब की बात है, निर्वाण शाश्वत पद है- जिसमें ब्रह्म स्वरूप यहाँ कोई प्रश्न करे कि ऐसी मान्यता से तो फिर यह देव, गुरू, शास्त्र तीर्थ, , शुद्धात्मा हमेशा रहते हैं, वही मेरा स्वरूप शाश्वत है अर्थात् मैं ही निर्वाण स्वरूप मन्दिर आदि का कोई महत्व ही नहीं रहा, इनकी पूजा, वन्दना, भक्ति करने की क्या हूँ, जो अरिहन्त देव तीर्थंकर स्वरूप इस देह में विराजमान हूँ। मैं स्वयं निर्वाण जरूरत है ? तीर्थ यात्रा, मंदिर आदि जाने की क्या जरूरत है ? जब स्वयं देह स्वरूप हूँ, मुझे निर्वाण भी नहीं चाहिये। देवालय में देव विराजमान है और वह मैं स्वयं हूँ तो अब रह ही क्या गया? फिर यह इसी बात को कुन्दकुन्दाचार्य नियमसार में कहते हैंकुछ भी करने की क्या जरूरत है?
णिइंडो णिबंदो णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो। उसका समाधान करते हैं कि बात तो यथार्थ सत्य यही है, जो ऐसा स्वीकार
णीरागो णिहोसो णिम्मूढो णिभयो अप्पा ।। ४३ ॥ करता है, जिसकी अनुभूति में अपना शुद्धात्म तत्व आ गया उसके लिये तो फिर आत्मा निर्दड, निद्वंद्व, निर्मम, नि:शरीर, निरालंब,नीराग, निर्दोष, निर्मूढ कुछ है ही नहीं और जिसे ऐसा स्वीकार नहीं है, जिसका लक्ष्य अभी बाहर पर की और निर्भय है। तरफ है, वह कितना ही कुछ भी करता रहे, पर उससे क्या होता है? क्या उसका
णिगंथो णीरागो णिस्सल्लो सयल दोस णिम्मुक्को। आत्म कल्याण हो सकता है, मुक्ति का मार्ग बन सकता है ? कभी नहीं। एक मात्र
णिलामो णिकोहो णिम्माणो हिम्मदो अप्पा ॥४४॥ अपने निज शुद्धात्म तत्व के आश्रय ही धर्म और धर्म की साधना तथा मुक्ति की प्राप्ति आत्मा निर्ग्रन्थ, नीराग, नि:शल्य, सर्वदोष विमुक्त, निष्काम, नि:क्रोध, होती है।
5 निर्मान और निर्मद है। हम अपनी अज्ञानता मिथ्या मान्यता से बंधे हैं, वस्तु का सत्स्वरूप
जारिसिया सिद्धप्या भव मल्लियजीव तारिसा होति। सुनने,समझने में जाति-पांति, सम्प्रदाय बाधक और बन्धन बना हआ है। सत्य को
जरमरण जम्म मुक्का अट्टगुणा किया जेण ॥४७॥ समझने और उपलब्ध करने के लिये अपनी संकीर्ण मनोभावना और उपचार धर्म जैसे सिद्धात्मा हैं, वेसे ही भवलीन संसारी जीव हैं, जिससे वे संसारी जीव (पूजा उपासना पद्धति) के बन्धन को तोड़ना पड़ेगा तभी सत्य धर्म उपलब्ध कर सिद्ध आत्माओं की भाँति जन्म,जरा, मरण से रहित और आठ गुणों से अलंकृत हैं।
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