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oA श्री आचकाचार जी
गाथा-४७ DOO असरीरा अविणासा अणिदिया णिम्मला विसुखप्पा।
यहाँ फिर प्रश्न है कि आत्मा स्वभाव से स्वयं परमात्मा है फिर यह ऐसा क्यों जह लोयग्गे सिखा तह जीवा संसिदी णेया॥४८॥
हो रहा है, इसका कारण क्या है? जिस प्रकार लोकाग्र में सिद्ध भगवान अशरीरी अविनाशी अतीन्द्रिय निर्मल ५
इसका उत्तर सद्गुरू तारण स्वामी यहाँ दे रहे हैंऔर विशुद्धात्मा हैं, उसी प्रकार संसार में सर्व जीव जानना।
आत्मा त्रिविधि प्रोक्तंच,परु अंतरु बहिरप्पयं। यहाँ शुद्ध भाव अधिकार में कुन्दकुन्दाचार्य देव जो बात कह रहे हैं वही श्री परिणाम जंच तिस्टंते, तस्यास्ति गुन संजुतं ॥७॥ तारण स्वामी इस गाथा में कह रहे हैं और एक बड़ी अपूर्व बात यह है कि मैं अकेला
अन्वयार्थ-(आत्मा त्रिविधि प्रोक्तंच) आत्मा तीन प्रकार कहा गया है (परु ऐसा नहीं हूँ, संसार में जितने जीव आत्मा हैं वह भी निश्चय से ऐसे ही हैं ऐसा:
अंतरु बहिरप्पयं) परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा (परिणामं जं च तिस्टते) सम्यक्दृष्टि जानता है।
. जो जैसे परिणामों में ठहरा हुआ है (तस्यास्ति गुन संजुतं) वह उस समय उस गुण यहाँ कोई प्रश्न करे कि अभी तक तो अपनी ही बात थी, अब सब संसारी
सहित है। जीव भी ऐसे हैं तो फिर धर्म कर्म की क्या जरूरत है ? यह दया, दान, पुण्य,धर्म *
विशेषार्थ- यहाँ उस प्रश्न का उत्तर दिया जा रहा है कि जीव को संसार का करने से क्या लाभ है? सब भगवान ही भगवान हैं तो संसार में क्या रह गया। फिर कहाँ का सुख, कहाँ का दु:ख, किसका जन्म, किसका मरण और किसको क्या :
सब स्वरूप दिखाई दे रहा है, जानने में आ रहा है और वह इस दुःख से छूटना लेना देना? फिर अब क्या करना है?
२ चाहता है परन्तु उसे अपने सत्स्वरूप का श्रद्धान शुद्धात्मानुभूति क्यों नहीं होती? इसका समाधान करते हैं कि यही तो समझना है.करना तो काळ है ही नहीं। यह एसा क्या हो रहा है, इसका क्या कारण है? न जीव कुछ करता है, न कर सकता है बस अपने सत्स्वरूप को भूला है सो कर्ता
सद्गुरू तारण स्वामी यहाँ इसका मूलाधार बता रहे हैं कि यह जीव आत्मा बन कर मरता है। यहाँ यही बात तो बताई जा रही है कि जो सम्यकदृष्टि ज्ञानी होता
तीन प्रकार का कहा गया है-परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा। जो जीव जैसे है, वह अपने सत्स्वरूप को ऐसा जान लेता है फिर करने का और कुछ नहीं करने
परिणामों (भावों) में ठहरा हुआ है, वह उस समय उस गुण सहित है अर्थात् उस का कोई प्रश्न ही नहीं है। अज्ञानी जीव कर्ता बनकर मरता है और पाप-पुण्य के चक्कर में भ्रमता रहता है, अपने सत्स्वरूप को जान ले तो फिर करने धरने की बात
यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह आत्मा तीन प्रकार का कैसे कहा गया है, जीव ही खत्म हो जाये । सत्य को उपलब्ध करने वाला तो भगवान बनता है, मुक्त हो ।
: आत्मा तो एक ही प्रकार का होता है। अरस, अरूपी, ज्ञान-दर्शन चेतना वाला
ज्ञान स्वभावी ही आत्मा है। भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा दो प्रकार से कहते जाता है।
है-संसारी और मुक्त। उसमें संसारी अपेक्षा चारगति और पांच इन्द्रिय आदि भेद जो निगोद में सो ही मुझमें, सो ही मोक्ष मंझार।
* हैं,पर यह एक आत्मा को तीन प्रकार कहने का क्या तात्पर्य है? निश्चय भेद कछु भी नाहि, भेद गिने संसार॥
उसका समाधान करते हैं कि यही तो रहस्यपूर्ण बात है। कहने में किस हमारी अज्ञानता और मिथ्या मान्यता के कारण ही यह सब हो रहा है, जहाँ ९ ऐसे अपने सत्स्वरूप की श्रद्धा, अनुभूति हई कि बेड़ा पार है।
४ अपेक्षा क्या कहा जा रहा है इसका जानना बहुत जरूरी है। इसीलिये वक्ता से । यहाँ कोई प्रश्न करे कि फिर ऐसा सत्श्रद्धान होता क्यों नहीं है?
श्रोता के लक्षण दीर्घ कहे हैं। जीव आत्मा के वास्ततिक स्वरूप और मर्म को समझने । उसका समाधान करते हैं कि भाई! तू ऐसा सत्श्रद्धान करना ही नहीं चाहता,
के लिये यह जैन दर्शन का मूल आधार है। यहाँ आत्मा के तीन प्रकार बताये हैं कि जब सत्य वस्तु स्वरूप सुनने में ही भय लगता है तो स्वीकार करना, श्रद्धान करना।
जिस समय यह जीव जैसे परिणामों मय होता है. उस समय वह वैसा है। यहाँ एक 5
जीव की शक्ति अपेक्षा यह भेद कहे हैं कि यह परमात्म शक्ति वाला जीव वर्तमान । तो बड़ा मुश्किल है।
रूप है।