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POOON श्री श्रावकाचार जी
गाथा-३१२,३१३ DO4 स्वरूप और देव का स्वरूप क्या बताया है पहले इसे समझो। यहाँ तो जीव की द्रोही वचनलोपंते) वे जिनद्रोही हैं. जो जिनेन्द्र के वचनों का लोपन, अर्थका अनर्थ स्वतंत्र सत्ता स्वीकार की है,यह आत्मा ही परमात्मा है और जो वस्तु का जैसा स्वभाव करते हैं (कुगुरुं दुर्गति भाजन) ऐसे कुगुरू स्वयं को दुर्गति का पात्र बनाते हैं। है वह उसका धर्म है, जब कोई किसी का कुछ नहीं कर सकता, जिनेन्द्र परमात्मा . विशेषार्थ- यहाँ अशुद्ध गुरू उपासना का स्वरूप बताया जा रहा है कि गुरू कहते हैं कि मेरे दर्शन पूजन से भी तेरा भला नहीं होना,तू स्वयं अपना दर्शन पूजन की उपासना अर्थात उनका सत्संग करना सेवा भक्ति करना आज्ञा पालन करना। कर तभी तेरा भला होगा। यहाँ जगत का नियन्ता कोई परमात्मा नहीं है, न भगवान सच्चे गरु निग्रंथ वीतरागी साधु आरंभ परिग्रह से रहित मिथ्या मान्यताओं के बन्धन का अवतार होता है, यह जीव स्वयं भगवान बनता है फिर इसमें देव की मूर्ति बनाकर से मुक्त अनेकांतमत के ज्ञाता आत्मध्यानीरत्नत्रय के धारक साधु होते हैं, जो आप दर्शन पूजन करना तो दोनों प्रकार से ही विरुद्ध है, सिद्धान्त से तो विरुद्ध है ही और स्वयं मोक्षमार्ग में चलते हैं तथा समस्त भव्यजीवों को धर्म का सत्स्वरूप और मुक्ति साथ में गृहीत मिथ्यात्व भी है इसलिये सिद्धान्त के विरुद्ध और वस्तु स्वरूप के का मार्ग बताते हैं. वही सदगुरू होते हैं। इसका विशद् विवेचन पूर्व में भी कहा जा विरुद्ध कोई भी कार्य करना उचित नहीं है।
चुका है। इसके विपरीत जो परिग्रह धारी विषयानुराग में तथा क्रोध, मान, माया, फिर प्रश्न करता है कि यह मान्यता तो बहुत समय से चली आ रही है और लोभ कषाय में अनरक्त हैं. जिनको अपने शुद्धात्म तत्व का अनुभव नहीं है,न द्रव्यों इसका समर्थन कई आचार्यों ने किया है फिर इसको कैसे छोड़ सकते हैं?
का तत्वों का न पदार्थों का यथार्थ ज्ञान है, जो मायाचार में लिप्त हैं तथा मिथ्यात्व उसका समाधान है कि भाई ! सिद्धान्त के विरुद्ध कोई गलत परम्परा चल रही काही उपदेश देते हैं, जो मायाचार से परिपूर्ण होते हुए अपना स्वार्थ साधन करते हैं, हो और किन्हीं विशेष परिस्थितियों में इसे चलाना पड़ा होतो विवेकी को तो उसमें बाह्य में नग्न दिगम्बर भेष बनाये रहते हैं परन्तु नाना प्रकार के मिथ्यात्व का पोषण सुधार करना चाहिये। भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के ६८३ वर्ष बाद तोशास्त्र करते हैं। कदेव-अदेवों की मान्यता मंत्र-तंत्र गन्डा ताबीज आदि देते हैं। जो लिखाये हैं और उसके बाद कुछ परिस्थितियाँ ऐसी बनी उसमें अपने आपको बचाने S असत्य है एकांत है अवस्तु है उसे सत्य कहते हैं, जिनेन्द्र के वचनों का लोपकर अर्थ के लिये यह मिथ्या मान्यता माननी पड़ी परन्तु अब तो ऐसी कोई परिस्थिति नहीं है। का अनर्थ कर उपदेश करते हैं. वीतराग विज्ञानमयी धर्म को न तो वे स्वयं पालते सही सिद्धान्त अनुसार चलनाही विवेकवान का कर्तव्य है। इसके विपरीत जो गलत हैं.न दसरों को उस मार्ग पर ले जाते हैं वे कुगुरु पाषाण की नौका के समान हैं जो मार्ग पर चलता है उसको उसका परिणाम भोगना पड़ेगा।
संसार में स्वयं डूबते और बैठने वालों को भी ले डूबते हैं। आगे अशुद्ध गुरू उपासना का स्वरूप बताते हैं
R संसार में बहुत सी रागवर्द्धक हिंसा पोषक विपरीत मान्यतायें पूजा पाठ व्रत ग्रंथं राग संजुक्तं, कषायं च मयं सदा।
आदि इन कुगुरुओं ने चला दिये हैं, जिसके द्वारा वे द्रव्य कमाने और अपनी पूजा सुद्ध तत्वं न जानते, ते कुगुरुं गुरू मानते ।। ३१२ ॥ 5 मान्यता कराने लगते हैं, अपने को साधुगुरु महन्त भट्टारक कहते हुए भी राजाओं से
8 अधिक भोग विलास करते हैं। भक्तों को नाना प्रकार का लौकिक लोभ दिखाकर मिथ्या माया प्रोक्तंच,असत्यं सत्य उच्यते।
उनसे धन संग्रह करते हैं, पुण्य को धर्म कहते हैं, वीतराग विज्ञानमयी जैन मार्ग का जिन द्रोही वचन लोपंते, कुगुरुं दुर्गति भाजनं ॥३१३॥
खण्डन करते हैं। बाहरी व्यवहार पूजा पाठ कराने में लीन रहते हैं, कभी शुद्ध अन्वयार्थ- (ग्रंथं राग संजुक्तं) राग सहितधनधान्यादि परिग्रह में (कषायंच 5 आत्मीक तत्व का न स्वयं मनन करते हैं और न भक्तों को उपदेश देते हैं,मात्र मयं सदा) और क्रोधादि कषायों में सदा रहते हैं (सुद्धतत्वं नजानते) जो शुद्धात्मीक कपोल-कल्पित कथायें सुनाकर मन को रंजायमान करके अपनी मान्यता करते हैं तत्व को नहीं जानते (ते कुगुरुंगुरू मानते) वे कुगुरु होते हैं, जो उन्हें गुरु मानते हैं, ये कुगुरु ही हैं इनकी भक्ति मान्यता करना अशुद्ध गुरु उपासना है। यही अशुद्ध गुरु उपासना है। (मिथ्या माया प्रोक्तंच) वे कुगुरु मिथ्यात्व वमायाचार जो जैन भेषी होकर भी ईर्या समिति नहीं पालते,भाषा समिति नहीं पालते, से पूर्ण उपदेश देते हैं (असत्यं सत्य उच्यते) जो असत्य है उसे सत्य कहते हैं (जिन उद्दिष्ट भोजन करते हैं,शीत उष्ण नग्नादि परीषहों के जीतने में कायर हैं, न स्वयं
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