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w श्री आचकाचार जी
गाथा-३१४.३१६ c o m आत्मा का मनन करते हैं,न दूसरों को उपदेश देते हैं, मिथ्यात्व के पोषण अदेवादि विरोधन) हिंसा हो प्राणियों का घात हो (संजम सुद्ध न पस्यंते) जो शुद्ध संयम, की मान्यता पूजा में लगे रहते हैं तथा औरों को लगाते हैं ऐसे कुगुरुओं की सेवा उन आत्म संयम को नहीं देखतेजानते (ते संजम मिथ्या संजमं) वह व्यवहार से बाहर में कुगुरुओं का भी बिगाड़ करने वाली है व उनके पूजकों का भी बिगाड़ करने वाली है , संयम पालते हैं परन्तु वह सब मिथ्या संयम है। क्योंकि यह मूढ भक्ति संसार वर्द्धक है, जो इनकी मान्यता उपासना करते हैं वे विशेषार्थ- अशुद्ध संयम वह है जिससे जीवों की हिंसा, प्राणियों का घात संसार के पात्र बनते हैं।
हो। संयमदो प्रकार का होता है- एक प्राणी संयम दूसरा इन्द्रिय संयम। पांचस्थावर, आगे अशुद्ध स्वाध्याय का स्वरूप बताते हैं
5 छठे त्रस इन छहकाय के जीवों का घात न हो, प्रमाद से या जान बूझकर कोई हिंसा अनेक पाठ पठनंते, वंदना श्रुत भावना।
न हो वह प्राणी संयम है और पांच इन्द्रिय और मन को वश में करना इन्द्रिय संयम है। सुद्ध तत्वं न जानते,सामायिक मिथ्या मानते ।।३१४॥ हैं मूल में अपने आत्म स्वरूप की साधना करना, अपने स्वरूप की सुरत रखना ही अन्वयार्थ- (अनेक पाठ पठनंते) अनेक पाठों का पढ़ना (वंदना श्रुत भावना)
शुद्ध संयम है परन्तु जिसे न प्राणी संयम हो और न आत्म संयम हो और अगर वह
* व्यवहार से इन्द्रियों का संयम पालते हैं, कुछ त्याग वैराग्य करते हैं पर जिन्हें वंदना करना, शास्त्रानुसार भावना करना (सुद्ध तत्वं न जानते) परन्तु शुद्ध तत्व अपने आत्म स्वरूप को न जानना (सामायिक मिथ्या मानते) और सामायिक को
अपना होश ही नहीं है वह सब मिथ्या संयम है। जैसे कोई रात्रि को न खावे,
अभक्ष्य न खावे, कंदमूल न खावे, उपवास करे और भी अनेक प्रकार के नियम मिथ्या मानना यह अशुद्ध शास्त्र स्वाध्याय है।
८पाले परन्तु पापों से विषय-कषायों से विरत न हो, आरंभ परिग्रह करे, जीवों की विशेषार्थ- यहाँ तीसरे कर्म अशुद्ध स्वाध्याय का स्वरूप बताया जा रहा है।
" दया न पाले और अपने आत्म स्वरूप का कोई श्रद्धान ज्ञान न हो, आत्म संयम का शास्त्र पढ़ने का नाम भी स्वाध्याय है तथा अपने आत्मस्वरूप का मनन अध्ययन ६
लक्ष्य ही न हो तो वह संयम मिथ्या, अशुद्ध संयम ही है। केवल कुछ पुण्य बंध का करना भी स्वाध्याय है परन्तु जो अनेक पाठों को पढ़े,शास्त्रों को पढ़े, तीर्थंकरों की
में संसार का ही कारण है, मोक्ष का कारण नहीं है। वंदना करे, स्तुति करे, णमोकार मंत्र का जप करे,शास्त्र स्वाध्याय करने की भावना X
आगे अशुद्ध तप का स्वरूप बताते हैंरखे परन्तु शुद्ध आत्मा का स्वरूप न जाने, न माने न अनुभव करे और सामायिक करने को मिथ्या माने, जो सामायिक प्रतिक्रमणादि करते हैं उनकी हंसी उड़ावे,
असुख तप तप्तं च, तीव्र उपसर्ग सह। सामायिक के समय शास्त्र स्वाध्याय करे और शास्त्रों के पढ़ने मात्र से भला जाने,
सुद्ध तत्वं न पस्यंते, मिथ्या माया तपं कृतं ।। ३१६॥ अपने को ज्ञानी माने, परिणामों में शान्ति और वैराग्य की भावना न होवे जिससे अन्वयार्थ- (असुद्ध तपतप्तंच) जो अशुद्ध तपतपते हैं अर्थात् व्रत उपवास ज्ञान का मद बढ़े, विषय-कषायों की पुष्टि करे, उसी रूप आचरण होवे ऐसा शास्त्र आदि करते हैं और (तीव्र उपसर्ग सह) तीव्र उपसर्ग सहते हैं अर्थात् कठिन से कठिन स्वाध्याय, अशुद्ध स्वाध्याय है जो संसार का ही कारण है। शास्त्र स्वाध्याय कर शरीर के कष्टों को सहन करते हैं परन्तु (सुद्ध तत्वं न पस्यंते) शुद्ध आत्म तत्व को पंडित बनकर आजीविका कमावे, जिनवाणी के नाम पर धन संग्रह करे, यह सब नहीं देखते जानते (मिथ्या माया तपं कृतं) मिथ्यात्व मायाचारी सहित तप करते हैं ० अशुद्ध स्वाध्याय का परिणाम है जो दुर्गति का पात्र बनाता है।
5वह मिथ्या तप है। आगे अशुद्ध संयम का स्वरूप बताते हैं
विशेषार्थ- अशुद्ध तप वह है जहाँ शुद्ध तत्व आत्मा का ज्ञान व अनुभव न हो संजमं असुद्धं जेन, हिंसा जीव विरोधनं ।
किंतु नाना प्रकार से शरीर को कष्ट दिया जावे, क्षुधा-तृषा दंशमशकादि का परीषह संजम सुद्धन पस्यंते,ते संजम मिथ्या संजमं ॥३१५॥ तथा देव, मनुष्य, पशु व अचेतन कृत उपसर्ग सहन किये जावें। अनशन, ऊनोदर अन्वयार्थ- (संजमं असुद्धं जेन) अशुद्ध संयम वह है जिससे (हिंसा जीव
मानी
अ आदि बारह प्रकार के तप करे, नग्न रहे, शुद्ध आहार ग्रहण करे परन्तु यदि आत्म
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