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04 श्री आपकाचार जी
गाथा-३१७.३१९ C OO0 ध्यान रूप अग्नि में तपनरूप तप न हो, आत्म स्वभाव की स्थिरता न हो, मिथ्यात्व ये षद् कर्म पालते, मिथ्या अन्यान दिस्टते। सहित मायाचारी हो, किसी प्रकार की सांसारिक कामना वासना हो.ऋद्धि सिद्धिका ते नरा मिथ्या दिस्टी च, संसारे भ्रमनं सदा ।। ३१८॥ अभिप्राय मान आदि कषाय सहित हो वह सब तप अशुद्ध तप है और संसार का
ये षट् कर्म जानते, अनेय विभ्रम क्रीयते। कारण है। जो व्रत नियम धारण करे, शील पाले तथा तप करे परन्तु शुद्धात्मा के * अनुभव स्वरूप परमार्थ से शून्य हो तो वह आज्ञानी ही है। सम्यक्त्व रहित द्रव्यलिंगी
मिथ्यात गुरू पस्यंते, दुर्गति भाजन ते नरा ।। ३१९॥ मुनि का तप अशुद्ध तप है, इसी बात को आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में कहते हैं
अन्वयार्थ- (ये षट् कर्म पालंते) जो कोई इन अशुद्ध छह कर्मों को पालते हैं वदणियमाणि धरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता। ८ (मिथ्या अन्यान दिस्टते) तथा मिथ्यात्व अज्ञान ही देखते रहते हैं (ते नरा मिथ्या
परमट्ट बाहिरा जे णिव्वाण ते ण विदति ॥१५३॥ दिस्टीच) वे मनुष्य मिथ्यादृष्टि ही हैं (संसारे भ्रमनं सदा) और हमेशा संसार में ही व्रत और नियमों को धारण करते हुए भी तथा शील और तप करते हुए भी जो परिभ्रमण करेंगे। परमार्थ से बाह्य हैं अर्थात् परम पदार्थ रूप ज्ञान स्वरूप आत्मा का जिसको श्रद्धान
(ये षट् कर्म जानते) जो इन अशुद्ध षट् कर्मों को जानते हैं (अनेय विभ्रम ज्ञान नहीं है वह निर्वाण को प्राप्त नहीं होते।
क्रीयते) इसके बाद भी अनेक विभ्रम, मिथ्यात्व मायाचार करते हैं (मिथ्यात गुरू इसलिये जोतपशरीर कष्ट रूप है हिंसा रूप है व किसीमायाचार के अभिप्राय पस्यंते) वे मिथ्यात्वी कुगुरु देखे जाने जाते हैं (दुर्गति भाजन ते नरा) ऐसे मनुष्य को लिये हुए है, वह सब मिथ्या तप है।
दुर्गति के पात्र होते हैं। आगे अशुद्ध दान का स्वरूप बताते हैं
, विशेषार्थ- जो कोई कुदेव-अदेव की पूजा करते हैं, कुगुरु सेवा करते हैं, दानं असुद्धदानस्य,कुपात्रं दीयते सदा।
मिथ्यात्ववर्द्धक शास्त्रों का पठन करते हैं, हिंसा कारक संयम पालते हैं, कायक्लेशादि व्रत भंगं कृतं मूढा, दानं संसार कारनं ॥ ३१७ ॥
ॐ आत्मज्ञान रहित तप करते हैं तथा कुपात्रों को दान देते हैं इस तरह इन छह अशुद्ध
3 कर्मों को पालते हैं वे मिथ्याज्ञानी मिथ्या श्रद्धानी मिथ्या फल ही पाते हैं, पाप ही अन्वयार्थ- (दानं असुद्धदानस्य) अशुद्ध दान वह है जो (कुपात्रं दीयते सदा)
बांधते हैं वदुर्गति में जाकर कष्ट पाते हैं। वह हमेशा संसार में ही परिभ्रमण करते रहते हमेशा कुपात्रों को दिया जावे (व्रतभंगं कृतं मूढा) व्रत भंग करने वाले मूढों को (दानं 5
र हैं तथा जो इन अशुद्ध षटकर्मों को जानते हैं कि यह गलत है इसके बाद भी अनेक संसार कारनं) दान देना संसार का कारण है।
विभ्रम मिथ्यात्व-मायाचार करते हैं, नाना प्रपंच फैलाते चमत्कार आदि बताते हैं, विशेषार्थ- अशुद्ध दान वह है,जो कुपात्रों को दिया जावे, जो लोग व्रत लेकर
5 धन-पुत्र आदि का लोभ बताते हैं, स्वर्गादि का सुख बताते हैं ऐसे मिथ्यात्व को फैलाने भंग करते हैं ऐसे मूढ मिथ्यादृष्टियों को दान देना संसार का कारण है, जिस दान से
कारण है, जिस दानस वाले कुगुरु देखे जाते हैं, जो जीव इनके चक्कर में फँसते हैं वे सब दुर्गति के पात्र पाप, विषय-कषाय, मिथ्यात्व की वृद्धि व पुष्टि हो वह सब दान अशुद्ध दान है,
ह. बनते हैं। जिससे दाता और पात्र दोनों को संसार में रुलना पड़ता है, श्रद्धा भक्ति से सत्पात्रों यहाँ कोई प्रश्न करे कि हम जो कुछ जानते-मानते हैं जो हमारी कुल परम्परा को ही दान देना चाहिये।
5 में मान्यतायें चली आ रही हैं और हम अपनी भक्ति भावना से अपने देवगुरु की पूजा 2 करुणाभाव से प्राणीमात्र को दान दिया जा सकता है जो पुण्य बंध का कारण
भक्ति करते हैं,संयम आदि का पालन करते और दान देते हैं तो क्या यह सब क्रियायें है। विवेक पूर्वक आवश्यकतानुसार सत्पात्रों को उपयोगी वस्तु शुद्ध भावों सहित अशद्ध हैं. पापबन्ध और दुर्गति की कारण हैं तो फिर हम यह सब कुछ न करें, क्या दान में देना शुद्ध दान है। इसके विपरीत कषायाधीन दान देना अशुद्ध दान है जो
सब बंद कर दें? संसार का ही कारण है।
इसका समाधान करते हैं कि भाई! प्रत्येक सद्गृहस्थ को यह छह कर्म