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ॐ श्री आवकाचार जी
मूर्ति हूँ, ऐसी अन्तर में प्रतीति करना ही सम्यक्दर्शन प्राप्त करने की विधि है । ऐसा समय मिला है जिसमें आत्मा को राग से भिन्न कर देना ही कर्तव्य है, अवसर चूकना बुद्धिमानी नहीं ।
सम्यकदृष्टि अपने निज स्वरूप को ज्ञाता दृष्टा, पर द्रव्यों से भिन्न, शाश्वत और अविनाशी जानता है। पर द्रव्य को तथा रागादिक को क्षणभंगुर, अशाश्वत, अपने स्वभाव से भली-भांति भिन्न जानता है इसलिये सम्यक्दृष्टि रागी नहीं होता ।
] तीन लोक तीन काल में सम्यक्दर्शन के समान सुखदायक अन्य कुछ नहीं है । यह सम्यक्दर्शन ही समस्त धर्मों का मूल है, इस सम्यक्दर्शन के बिना सभी क्रियायें दुःख दायक हैं।
सम्यक्दर्शन मोक्ष रूपी महल की प्रथम सीढ़ी है। सम्यक्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र सच्चाई प्राप्त नहीं करते; हे भव्य जीवो! ऐसे पवित्र सम्यक्दर्शन को धारण करो ।
[D] जिनेश्वर देव का कहा हुआ दर्शन सम्यक्दर्शन है वह गुणों में और दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनों रत्नों में सार अर्थात् उत्तम है और मोक्ष मन्दिर में चढ़ने के लिये पहली सीढ़ी है।
] सम्यक्दर्शन की प्राप्ति के बाद संसार परिभ्रमण का न्यूनतम काल अन्तर्मुहूर्त और अधिकतम अर्द्धपुद्गल परावर्तन मात्र है। सम्यक्त्व की प्राप्ति सम्यक्दृष्टि जीव के सांसारिक दोषों का क्रमशः अभाव और आत्म गुणों की क्रमश: प्राप्ति अर्थात् शुद्धि का क्रम प्रारम्भ हो जाता है ।
[] जो प्राणी कषाय के आताप से तप्त हैं, इन्द्रिय विषय रूपी रोग से मूर्च्छित हैं और इष्ट वियोग तथा अनिष्ट संयोग से खेद खिन्न हैं उन सबके लिये सम्यक्त्व परम हितकारी औषधि है।
[D] सम्यक्दर्शन सहित जीव का नरकवास भी श्रेष्ठ है परन्तु सम्यक्दर्शन रहित जीव का स्वर्ग में रहना भी शोभा नहीं देता; क्योंकि आत्मभान बिना स्वर्ग में भी वह दुःखी है, जहां आत्मज्ञान है वहीं सच्चा सुख है।
YAN YASA YA.
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रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र
जिस प्रकार समुद्र में डूबा हुआ अमूल्य रत्न पुन: हाथ नहीं आता, प्रकार मनुष्य शरीर, उत्तम श्रावक कुल और जिन वचनों का श्रवण आदि सुयोग भी बीत जाने के बाद पुनः प्राप्त नहीं होता ।
संशय, विमोह और विभ्रम से रहित सहज शुद्ध केवलज्ञान दर्शन स्वभावी निजात्म स्वरूप का ग्रहण, परिच्छेदन, परिच्छित्ति और पर द्रव्य का स्वरूप अर्थात् भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म का स्वरूप, पुद्गल आदि पांचों द्रव्यों का स्वरूप तथा अन्य जीव का स्वरूप जानना वह सम्यक्ज्ञान है।
[D] सम्यक्दर्शन सहित सम्यक्ज्ञान को दृढ़ करना चाहिये। जिस प्रकार सूर्य समस्त पदार्थों को तथा स्वयं अपने को यथावत् दर्शाता है, उसी प्रकार जो अनेक धर्मयुक्त स्वयं अपने को अर्थात् निज आत्मा को तथा पर पदार्थों को ज्यों का त्यों बतलाता है उसे सम्यक्ज्ञान कहते हैं।
[D] निश्चय भाव श्रुतज्ञान शुद्धात्मा के सन्मुख होने से सुख संवित्ति अर्थात् ज्ञान स्वरूप है । यद्यपि वह केवलज्ञान की अपेक्षा परोक्ष है तथापि छद्मस्थों के क्षायिक ज्ञान की प्राप्ति न होने से क्षायोपशमिक होने पर भी उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है।
[] मन:पर्ययज्ञान उत्तम ऋद्धिधारी भावलिंगी मुनियों को ही होता है और अवधिज्ञान चारों गतियों के सैनी पंचेन्द्रिय जीवों को होता है, यह स्वामी की अपेक्षा से भेद है । उत्कृष्ट अवधिज्ञान का क्षेत्र असंख्यात लोक प्रमाण तक है और मन:पर्ययज्ञान का ढाई द्वीप मनुष्य क्षेत्र है, यह क्षेत्र अपेक्षा भेद है । स्वामी तथा विषय के भेद से विशुद्धि में अन्तर जाना जा सकता है । अवधिज्ञान का विषय परमाणु पर्यंत रूपी पदार्थ है और मनः पर्यय का विषय मनोगत विकल्प हैं।
0 जो एक ही साथ सर्वतः सर्व आत्म प्रदेशों से तात्कालिक या अतात्कालिक विचित्र अर्थात् अनेक प्रकार के और विषम (मूर्त-अमूर्त आदि असमान जाति के) समस्त पदार्थों को जानता है उस ज्ञान को क्षायिक अर्थात् केवलज्ञान कहा है।
निज शुद्धात्म तत्व का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र जिसका लक्षण