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to श्री श्रावकाचार जी
रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र doo है, ऐसे एकाग्र ध्यान द्वारा केवलज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों का नाश होने → चारित्र को दो प्रकार का कहा है- प्रथम तो सम्यक्त्व का आचरण पर जो उत्पन्न होता है, वह एक समय में समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को कहा। वह जो सर्वज्ञ के आगम में तत्वार्थ का स्वरूप कहा उसको यथार्थ जानकर ग्रहण करने वाला सर्व प्रकार से उपादेयभूत केवलज्ञान है।
श्रद्धान करना और उसके शंकादि अतिचार मल दोष कहे, उनका परिहार करके - सम्यक्दर्शन होने के बाद ही ज्ञान सम्यक्ज्ञान कहलाता है। सम्यक्दर्शन शुद्ध करना उसके नि:शंकितादि गुणों का प्रगट होना वह सम्यक्त्वाचरण चारित्र के बिना कितना भी क्षयोपशम रूप ज्ञान हो, मिथ्याज्ञान ही नाम पाता है; अत: है और जो महाव्रतादि अंगीकार करके सर्वज्ञ के आगम में कहे अनुसार संयम सम्यक्दर्शन कारण है और सम्यक्ज्ञान कार्य है।
का आचरण करना तथा उसके अतिचार आदि दोषों को दर करना संयमाचरण पूर्व काल में जो जीव मोक्ष में गये हैं, वर्तमान में जा रहे हैं और भविष्य चारित्र है। में जायेंगे वह सब सम्यक्ज्ञान की महिमा है ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है। पांच
निज ज्ञायक भगवान आत्मा में सम्यक्दर्शन ज्ञान सहित स्थिरता पूर्वक इन्द्रियों के विषयों की इच्छा रूपी भयंकर दावानल संसारी जीवों रूपी अरण्य प्रगट शुद्धि को निश्चय सम्यक्चारित्र कहते हैं। को जला रहा है। उसकी शांति का उपाय दूसरा नहीं है, मात्र ज्ञानरूपी वर्षा का
संसार के कारणों का नाश करने के लिये ज्ञानी को जो बाह्य और समूह शांत करता है।
अंतरंग क्रियाओं का निरोध है, श्री जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित वह परम अर्थात् जिनागम में चारित्र के रूप में शुद्धि के साथ भूमिकानुसार वर्तने वाले निश्चय सम्यक्चारित्र है। शुभ भाव रूप व्यवहार चारित्र का ही मुख्यता से वर्णन है। उसमें भी पंचम
जीव जब अनादि मोहनीय के उदय का अनुसरण करने वाली परिणति गुणस्थानवर्ती श्रावक को होने वाले अणुव्रतादि रूप देश व्यवहार चारित्र का १ करना छोड़कर अत्यन्त शुद्ध उपयोग वाला होता है तब भाव का एकरूपपना संक्षिप्त और भावलिंगी मुनिराज को होने वाले महाव्रतादि रूप सकल व्यवहार ग्रहण किया होने के कारण उसे जो नियत (निश्चित, एकरूप) गुण पर्यायपना चारित्र का प्रधानता से कथन है।
होता है वह स्व समय अर्थात् स्व चारित्र है। वास्तव में सम्यक्चारित्र का प्रारम्भ निज स्वरूप में चरण अर्थात् रमण । जिस चारित्र के अर्थात् स्वरूपाचरण चारित्र के होने से समस्त रूप स्वरूपाचरण चारित्र से चतुर्थ गुणस्थान से प्रथम निर्विकल्प दशा से होता है। पर पदार्थों से वृत्ति हट जाती है, वर्णादि तथा रागादि से चैतन्य भाव को पृथक्
और यही स्वरूपाचरण क्रमश: बढ़ती हुई शुद्धि के साथ-साथ देशचारित्र या 5 कर लिया जाता है, अपने आत्मा में, आत्मा के लिये, आत्मा द्वारा, अपने आत्मा सकलचारित्र नाम पाता हआ बारहवेंगुणस्थान में पूर्णता को प्राप्त होता है। S का ही अनुभव होने लगता है; वहां नय, प्रमाण, निक्षेप, गुण-गुणी, । सम्यक्ज्ञान से निज को और पर को जानकर और सम्यक्दर्शन से
स्व ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय, ध्यान-ध्याता-ध्येय, कर्ता-कर्म और क्रिया आदि भेदों का और पर की प्रतीति करके जो पर भाव को छोड़ता है, वह आत्मा का निज शुद्ध किंचित् विकल्प नहीं रहता, शुद्ध उपयोग रूप अभेद रत्नत्रय द्वारा शुद्ध चैतन्य भाव ज्ञानी पुरुषों का चारित्र होता है।
"काही अनुभव होने लगता है। जो विशुद्धता का उत्कृष्ट धाम है तथा योगीश्वरों का जीवन है और
लज्जा, दया, मंदकषाय, श्रद्धा, दूसरों के दोष ढांकना, परोपकार, समस्त प्रकार की पाप रूप प्रवृत्तियों से दूर रहने का लक्षण है उसको सम्यक्चारित्र सौम्यदृष्टि, गुणग्राहकता, सहनशीलता, सर्वप्रियता, सत्यपक्ष, मिष्टवचन, कहते हैं।
अग्रसोची, विशेषज्ञानी, शास्त्रज्ञान की मर्मज्ञता, कृतज्ञता, तत्वज्ञानी, धर्मात्मा,