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७ श्री आवकाचार जी
न दीन न अभिमानी, मध्यम व्यवहारी, स्वाभाविक विनयवान, पापाचरण से रहित, ऐसे इक्कीस पवित्र गुण श्रावकों को ग्रहण करना चाहिये। निश्चय मोक्षमार्ग साक्षात् मोक्षमार्ग का साधक है तथा व्यवहार मोक्षमार्ग परम्परा से मोक्षमार्ग का साधक है अथवा व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्ग का साधक है अथवा व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्ष मार्ग का कारण है।
] दर्शन ज्ञान प्रधान चारित्र से यदि वह वीतराग हो तो मोक्ष प्राप्त होता है और उससे ही यदि वह सराग हो तो देवेन्द्र, असुरेन्द्र, नरेन्द्र के वैभव क्लेश रूप बन्ध की प्राप्ति होती है; इसलिये मुमुक्षुओं को इष्ट फल वाला होने से वीतराग चारित्र ग्रहण करने योग्य है और अनिष्ट फल वाला होने से सराग चारित्र त्यागने योग्य है।
[D] सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र से विभूषित पुरुष यदि तप आदि गुणों में मन्द भी हो तो भी वह सिद्धि का पात्र है अर्थात् उसे सिद्धि की प्राप्ति होती है; किन्तु इसके विपरीत यदि रत्नत्रय से रहित पुरुष अन्य गुणों में महान भी हो तो भी वह कभी भी सिद्धि को प्राप्त नहीं हो सकता है।
वास्तव में कोई भी काल और क्षेत्र धर्म की प्राप्ति के लिये विघ्न कारक नहीं है अत: इस पंचम काल और भरत क्षेत्र में भी आत्म सन्मुखता अर्थात् सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र पूर्वक भावलिंगी मुनि इन्द्र आदि पद प्राप्त कर क्रम से मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं।
अभी इस पंचम काल में भी जो मुनि सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की शुद्धता युक्त होते हैं, वे आत्मा का ध्यान कर इन्द्र पद अथवा लोकांतिक देव पद को प्राप्त करते हैं।
मुमुक्षु भव्य जीवों को प्रमाद का त्यागकर, शास्त्राभ्यास एवं ज्ञानी गुरू की देशना प्राप्त कर, पर द्रव्यों से भिन्न अपने आत्म स्वभाव का निर्णय कर, सर्वप्रथम सम्यक्दर्शन प्राप्त करना चाहिये; क्योंकि निश्चय सम्यक्दर्शन ज्ञान पूर्वक ही एकदेश चारित्र रूप श्रावक दशा और सकल चारित्र रूप मुनिदशा की प्राप्ति तथा क्रम से यथाख्यात रूप पूर्ण चारित्र की प्राप्ति होकर नियम से
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SYARATAN YA
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रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र
मोक्ष गमन होता है ।
आत्मा ज्ञाता दृष्टा ही है। आत्मा ज्ञाता दृष्टा के उपयोग को जब पर पदार्थ की ओर लक्ष्य रखकर पर भाव में यह 'मैं' ऐसा दृढ़ कर लेता है तब यही संसार कहलाता है और जब स्व की ओर लक्ष्य करके उपयोग को स्व यह 'मैं' ऐसा दृढ़ कर लेता है तब यही मोक्ष कहलाता है ।
[] यह ऐहिक सुख वास्तविक सुख नहीं है। सुख वह है जहां दुःख नहीं है, धर्म वह है जहां अधर्म नहीं है, और शुभ वह है जहां अशुभ नहीं है । इन्द्रिय सुख पराधीन है, बाधाओं से घिरा हुआ है, सान्त है, बन्ध का कारण और विषम है इसलिये यह सुख वास्तव में दुःख ही है।
[D] इन्द्रियों के विषय सेवन से जो सुख हुआ है, वह दुःख ही है; क्योंकि यह इन्द्रिय जनित सुख अनन्त संसार की संतति के क्लेशों को सम्पादन करने का कारण है और विद्वानों ने दुःख तथा दुःख के कारण को एक ही कहा है।
सुख और धर्म वास्तव में आत्मा का स्वभाव है और यह दोनों अविनाभावी रूप से एक साथ आत्मा के आश्रय से ही प्रगट होते हैं। सुख और धर्म का प्रारम्भ सम्यक्दर्शन अर्थात् चौथे गुणस्थान से होकर पूर्णता मोक्ष में होती है।
धर्म तो आत्मा का स्वभाव है, जो पर में आत्म बुद्धि छोड़कर अप ज्ञाता दृष्टा रूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव तथा ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तन रूप जो आचरण वही धर्म है ।
] जीव का पर द्रव्यों में अहंकार, ममकार रूप परिणाम होना मोह है। विपरीत मान्यता, तत्वों का अश्रद्धान, विपरीत अभिप्राय, पर पदार्थों में एकत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व एवं सुख बुद्धि अर्थात् शरीर को अपना स्वरूप मानना, पंचेन्द्रिय के विषयों में सुख मानना, अनुकूल संयोगों में इष्ट और प्रतिकूल संयोगों में अनिष्ट बुद्धि रखना, स्वयं को पर का तथा पर को स्वयं का कर्ता-धर्ता मानना इत्यादि दर्शन मोहनीय (मिथ्यात्व) कर्म के उदय काल में निमित्त होने वाले जीव के श्रद्धा गुण के विकारी परिणामों को मोह कहते हैं।