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________________ Poon Ouक श्री श्रावकाचार जी रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र coom परमागम के प्रकाश से दूर कर स्वरूप और पर रूप का ज्ञान करना ही कल्याण - तत्वों की सम्यक् अर्थात् सच्ची श्रद्धा का नाम अथवा विपरीत कारी है। अभिनिवेश रहित प्रयोजनभूत जीवादि पदार्थों का श्रद्धान ही सम्यक्दर्शन है। ____- निज ज्ञायक स्वभाव आत्म द्रव्य के आश्रय से प्रगट एक समय की । अतत्व में तत्व बुद्धि, अदेव में देव बुद्धि, अधर्म में धर्म बुद्धि इत्यादि निर्मल पर्याय (सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र) को रत्नत्रय कहा है, उसके विपरीत अभिनिवेशरहित ज्ञान की ही 'सम्यक् विशेषण से कहने योग्य अवस्था फलस्वरूप केवलज्ञान पर्याय जो ज्ञान गुण की एक समय की पर्याय है वह विशेष को सम्यक्दर्शन कहा जाता है। महारत्न है; तो ऐसी अनन्त पर्यायों काधारक ज्ञान गुण भी महारत्न है। ऐसे ज्ञान - भूतार्थ नय के विषयभूत- शुद्ध समयसार शब्द से वाच्य, भावकर्म, आनन्द आदि अनन्त गुणों रूप महान-महान रत्नों का धारक आत्म द्रव्य तो , द्रव्यकर्म, नोकर्म आदि समस्त पर द्रव्यों से भिन्न परम चैतन्य विलास लक्षण महान रत्नों से भरा हुआ सागर है, उसकी महिमा का क्या कहना। अहो! ज्ञायक स्व शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचि ही सम्यक्दर्शन है। स्वभाव की महिमा वचनातीत है, इसकी महिमा अपार-अपार अनुभव गम्य द्रव्य, गुण, पर्याय के भेद का लक्ष्य छोड़कर, अभेद स्वभाव की ओर ही है। झुकने पर, कर्ता-कर्म-क्रिया के भेद का विभाग क्षय होता है और जीव निष्क्रिय । स्व-पर के विवेक से मोह का नाश किया जा सकता है। यह स्व-पर चिन्मात्र भाव को प्राप्त होता है यही सम्यक्दर्शन है। का विवेक जिनागम के द्वारा स्व-पर के लक्षणों को यथार्थतया जानकर करना अपने में ही आत्म स्वरूप का परिचय पाता है, कभी संदेह नहीं उपजता चाहिये। हैं और छल-कपट रहित वैराग्य भाव रहता है यही सम्यक्दर्शन का चिन्ह (लक्षण) । स्व-पर के यथार्थ श्रद्धान रूप तत्वार्थ श्रद्धान हो तब जीव सम्यक्त्वी ५ है। होता है ; इसलिये स्व-पर के श्रद्धान में शुद्धात्म श्रद्धान रूप निश्चय सम्यक्त्व । वास्तव में तो सम्यक्दर्शन पर्याय ही है; किन्तु जैसा गुण है वैसी ही गर्भित है। . उसकी पर्याय प्रगट हुई है, इस प्रकार गुण पर्याय की अभिन्नता बताने के लिये - द्रव्य के यथार्थ स्वरूप का श्रद्धान सम्यक्दर्शन का कारण है और कहीं-कहीं उसे सम्यक्त्व गुण भी कहा जाता है किन्तु वास्तव में सम्यक्त्व सम्यकदृष्टि जीव नियम से पंच परावर्तन का अभाव कर सादि अनन्त अविनाशी पर्याय है, गुण नहीं। जो गुण होता है वह त्रिकाल रहता है, सम्यक्त्व त्रिकाल पंचम गति अर्थात् मोक्ष सुख को प्राप्त करता है। ९ नहीं होता किंतु उसे जीव जब अपने सत्पुरुषार्थ से प्रगट करता है तब होता है - इकतीस सागर से अधिक आयु के धारक नव अनुदिश और पांच इसलिये वह पर्याय है। अनुत्तर ऐसे चौदह विमानों में उत्पन्न होने वाले देवों के परावर्तन अर्थात् पंच पहले आत्मा का आगम ज्ञान से ज्ञान स्वरूप निश्चय करके; फिर परावर्तन नहीं होता क्योंकि वे सब सम्यक्दृष्टि हैं। इन्द्रिय बुद्धि रूप मतिज्ञान को ज्ञानमात्र में ही मिलाकर तथा श्रुतज्ञान रूपी नयों - सम्यक्दृष्टि जीव कुगतियों में नहीं जाता है यदि कदाचित् वह जाता भी " के विकल्पों को मिटाकर श्रुतज्ञान को भी निर्विकल्प करके एक अखण्ड है तो इसमें सम्यक्त्व का दोष नहीं इससे वह पूर्व कृत कर्म का ही क्षय करता है। प्रतिभास का अनुभव करना ही सम्यक्दर्शन और सम्यक्ज्ञान के नाम को प्राप्त जो सिद्ध हो चुके हैं, भविष्य में होंगे और वर्तमान में होते हैं वे सब करता है। सम्यक्दर्शन और सम्यक्ज्ञान कहीं अनुभव से भिन्न नहीं हैं। निश्चय से आत्म दर्शन से ही सिद्ध हुए हैं यह भ्रांति रहित समझो। पर का कर्ता आत्मा नहीं, राग का भी कर्ता नहीं, राग से भिन्न ज्ञायक २६०
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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