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श्री श्रावकाचार जी
रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र DO रत्नत्रय : सिद्धान्त सूत्र
वाला है।
। स्वर्ग लोक में उत्पन्न हुए इन्द्र और अहमिन्द्रों के भी विषय भोगों को • राग-द्वेष का अभाव होने पर हिंसादि पांचों पापों की पूर्ण निवत्ति विष के समान दाह दुःख उत्पन्न करने वाले जानकर सम्यक्दृष्टि कभी स्वप्न में अर्थात् अभाव हो जाता है, पांच पापों का अभाव होना ही चारित्र है। भी उनकी वांछा नहीं करता है। 0 किसी जीव को करणलब्धि आदि कारण मिलने पर दर्शन मोह के
इस दुःषम काल के जो मनुष्य हैं, वे अल्पायु और अल्पबुद्धि लिये हुए उपशम, क्षयोपशम, क्षय होने पर सम्यक्दर्शन होता है तब मिथ्यात्व का अभाव
८ हैं। इस काल में कषायों की आधीनता, विषयों की गृद्धता, बुद्धि की मन्दता, होने से ज्ञान भी सम्यक्ज्ञान हो जाता है, उस समय कोई सम्यकज्ञानी सज्जन । रोगों की अधिकता, ईर्ष्या की बहुलता, दरिद्रता आदि लिये ही उत्पन्न होते हैं पुरुष राग-द्वेष का पूर्ण अभाव करने के लिये चारित्र अंगीकार करता है।
अतः सम्यक्ज्ञान प्राप्त करके कर्म को जीतने का उद्यम करना योग्य है। समस्त अन्तर-बाह्य परिग्रह से विरक्त जो अनगार अर्थात् गृह, मठ .
बाह्य शरीर इन्द्रिय आदि को ही आत्मा जानने वाला बहिरात्मा है, वह आदि नियत स्थान रहित वनखण्डादि में परम दयाल होकर निरालम्वी विचरण विषयों की वेदना के इलाज को ही सुख मानता है। ऐसा मानना तो मोह कर्म करते हैं ऐसे ज्ञानी मुनीश्वरों को जो चारित्र होता है वह सकल चारित्र है। जनित भ्रम है। सुख तो ऐसा है जहां दुःख उत्पन्न ही न हो, उसका लक्षण
गृह-कुटुम्ब आदि के त्यागी, अपने शरीर से निर्ममत्व रहने वाले साधुओं निराकुलता हा विषयाक आधान सुखमाननामिथ्या श्रद्धानह। को सकल चारित्र होता है। गृह, कुटुम्ब, धनादि सहित गहस्थों को विकल. जो सम्यक्त्व होता है, वह मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय का चारित्र होता है।
५ अभाव होने पर होता है। अव्रत सम्यक्दृष्टि गृहस्थ के मिथ्यात्व का अभाव इस संसार में सम्यकदर्शन ही दर्लभ है। सम्यकदर्शन ही ज्ञान और हुआ है और अनन्तानुबन्धी कषाय का भी अभाव हआ है। मिथ्यात्व के अभाव चारित्र का बीज है। सम्यकदर्शन ही उत्तम पद है. उत्कट ज्योति है. श्रेष्ठ तप से तो सच्चा आत्म तत्व और पर तत्व का श्रद्धान प्रगट हआ है। अनन्तानबन्धी इष्ट पदार्थो की सिद्धि है, परम मनोरथ है, अतीन्द्रिय सुख है, कल्याणों की परम्परा कषाय क अभाव स विपरात राग भाव का अभाव हुआ है; और ज्ञान श्रद्धान है। सम्यक्दर्शन के बिना सर्वज्ञान मिथ्याज्ञान, चारित्र मिथ्याचारित्र और तप की विपरीतता के अभाव से इसलोक भय, परलोक भय, मरण भय आदिसातों बाल तप कहलाता है। शुद्ध जीव का साक्षात् अनुभव होना वही यथार्थ भय अव्रत सम्यक्दृष्टि के नहीं हैं इसी कारण उसे अपनी आत्मा का अखण्ड सम्यक्दर्शन है।
अविनाशी टंकोत्कीर्ण ज्ञान दर्शन स्वभाव का श्रद्धान होता है। ० सम्यक्त्व के गुण और मिथ्यात्व के दोषों को जानकर, सम्यक्त्वरूपी
अनादिकाल का संसारी जीव सर्वज्ञ वीतराग द्वारा प्रकाशित धर्म रत्न को भाव पूर्वक धारण कर। यह सम्यक्दर्शन गुण रूपी रत्न सब रत्नों में सार कान
को नहीं जानता है। इसी कारण से इसे यह भी ज्ञान नहीं है कि मैं कौन हूँ ? मेरा है और मोक्ष रूपी मन्दिर का पहला सोपान है।
" स्वरूप कैसा है ? मुझे करने योग्य क्या है ? मेरा हित क्या है ? आराधने योग्य सम्यक्त्व सब रत्नों में महारत्न है, सब योगों में उत्तम योग है, सब कौन है ? मृत्यु-जीवन का क्या स्वरूप है ? भक्ष्य-अभक्ष्य का क्या स्वरूप ऋद्धियों में महाऋद्धि है, अधिक क्या ? सम्यक्त्व ही सब ऋद्धियों को करने है ? मेरा कौन है ? मैं किसका हूँ ? इत्यादि विचार रहित मोहनीय कर्म कृत
अंधकार से आच्छादित हो रहे हैं। उनके अज्ञान रूप अंधकार को स्याद्वाद् रूप
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