________________
७
श्री आवकाचार जी यह निर्मल क्षायिक सम्यक्त्व सदाकाल बना रहता है। इसी के महात्म्य से वहाँ भी सिद्ध भगवान स्वात्मानंद का भोग करते रहते हैं, यह सम्यक्त्व की महिमा है ।
यहाँ अन्तरात्मा जघन्य पात्र अव्रत सम्यकदृष्टि जिसके जीवन में अठारह क्रियाओं का प्रादुर्भाव होता है, उसके प्रथम सम्यक्त्व का यह वर्णन है। इस सम्यक्त्व की साधना और बारम्बार चिन्तन से क्या होता है, इसे सद्गुरू अगली गाथा में कहते हैं
संमिक्तं जस्य चिंतंते, बारंबारेन सार्धयं ।
दोषं तस्य विनस्यति, सिंघ मतंग जूथयं । २२१ ॥
अन्वयार्थ - (संमिक्तं जस्य चिंतंते) जो जीव सम्यक्त्व का अर्थात् अपने शुद्धात्म स्वरूप का चिन्तवन करते हैं (बारंबारेन सार्धयं) बारम्बार उसी की साधना-आराधना स्मरण ध्यान में लगे रहते हैं (दोषं तस्य विनस्यंति) उनके सारे दोष विनश जाते हैं, भाग जाते, विला जाते हैं (सिंघ मतंग जूथयं) जैसे- सिंह को देखकर हाथियों के झुण्ड तितर-बितर होकर भाग जाते हैं ।
विशेषार्थ व्रतसम्यदृष्टि अन्तरात्मा, जघन्य पात्र की प्रथम क्रिया सम्यक्त्व का बारम्बार चितवन, अभ्यास, साधना, आराधना करता है। अभी वह संसारी प्रपंच मोहजाल पाप-परिग्रह में फँसा है परंतु जिसे अमृत का स्वाद आ गया है, निज शुद्धात्मानुभूति हो गई है वह बार-बार उसी का चिन्तवन करता है और इसी साधना से उसके सारे दोष विनश जाते हैं। यह पाप परिग्रह, मोह, राग-द्वेषादि, विषय- कषाय छूटने विनशने लगते हैं। जैसे- सिंह को देखकर उसकी गर्जना सुनकर हाथियों के झुण्ड भागने, तितर-बितर होने लगते हैं, इसी प्रकार जिसका सम्यक्दर्शन रूपी सिंह जाग्रत हो गया, सोता हुआ बन्द गुफा से बाहर निकल आया फिर उसकी गर्जना से यह कर्म रूपी हाथियों का झुण्ड विनश जाता है और वह आगे बढ़ता हुआ सिद्ध पद पाता है यह सम्यक्दर्शन की महिमा है।
यहाँ कोई प्रश्न करे कि ऐसा सम्यक्दर्शन जिसके प्रताप से जन्म-मरण टले मुक्ति की प्राप्ति हो, स्वयं परमात्मा बने, क्या वह इस काल में अभी हम संसारी जीवों को हो सकता है ?
उसका समाधान करते हैं कि भाई ! अपनी भावना जागे, इसका बहुमान आवे यही इष्ट है ऐसा लगे तो अभी इसी समय सम्यक्दर्शन हो सकता है। इस पंचमकाल
७
SYAA AAAAAN FANART YEAR.
१४६
गाथा-२२१,२२२
में भी क्षणभर में सम्यक्दर्शन हो सकता है। सम्यक्दर्शन प्रगट करना तो वीरों का काम है, कायरों का नहीं है। इसमें घिसने की जरूरत नहीं है, यह तो एक समय के दृष्टि परिवर्तन का कमाल है। जहाँ संसार से भिन्न, शरीर से भिन्न, इन्द्रिय मन वाणी से भिन्न और एक समय की चलने वाली पर्याय से भिन्न अपने शुद्ध चैतन्य ज्ञानानंद स्वभाव टंकोत्कीर्ण अप्पा ध्रुव तत्व की ओर दृष्टि गई, जहाँ एक समय की निर्विकल्प दशा में निज शुद्धात्मानुभूति हुई कि जय-जयकार मच गई। अरे ! यह तो अपनी चीज और अपने को न मिले ऐसा होता ही नहीं है। तारण स्वामी तो कहते हैं- देख, देख ! यह शुद्धं प्रकाशं शुद्धात्म तत्वं, इसमें कल की बात ही क्या है ? यह तो वीरों की बात है और वीरों का काम है।
संसार दुष्यं जे नर विरक्तं, ते समय सुद्धं जिन उक्त दिस्टं । निध्यात मय मोह रागादि बंडं, ते सुद्ध विस्टी तत्वार्थ साधं ॥ हमें ऐसा लगे तो अभी हो सकता है। जो सिंह जाग गया है वह क्या करता है, इसे सद्गुरू अगली गाथा में कहते हैंसंमितं सुद्ध धुवं सार्धं, सुद्ध तत्व प्रकासकं ।
तिअर्थ सुद्ध संपून, संमितं सास्वतं पदं ।। २२२ ।। अन्वयार्थ (संमिक्तं सुद्ध धुवं सार्धं) सम्यक्त्व से शुद्ध होकर जो अपने ध्रुव स्वभाव की साधना करता है (सुद्ध तत्व प्रकासकं ) शुद्ध तत्व का प्रकाश करता है (तिअर्थं सुद्ध संपून) रत्नत्रय से संपूर्ण शुद्ध होकर (संमिक्तं सास्वतं पदं ) अपने आत्मीक अविनाशी शाश्वत पद को पाता है।
विशेषार्थ - यहाँ जागे हुए सिंह अर्थात् सम्यक्दृष्टि की महिमा बताई जा रही है कि जिसे निज शुद्धात्मानुभूति हो गई, जिसने जान लिया कि यह शुद्ध चैतन्य टंकोत्कीर्ण अप्पा ममल स्वभावी ध्रुव तत्व शुद्धात्मा मैं हूँ, वह फिर ध्रुव स्वभाव की ही साधना करता है फिर वह पर पर्याय मोह, राग-द्वेषादि विकारी भावों को नहीं देखता, क्या हो रहा है और क्या होगा ? इसका विकल्प नहीं करता, वह तो अपने शुद्ध तत्व का ही प्रकाश करता है अर्थात् निरंतर उसी का चिन्तन आराधन, चर्चा करता रहता है और रत्नत्रय से संपूर्ण शुद्ध होकर अपने अविनाशी शाश्वत सिद्ध पद को पाता है।
इसी बात को छहढाला में पं. दौलतरामजी ने बहुत स्पष्ट अपनी भाषा में
कहा है
७०७