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2004 श्री आचकाचार जी
गाधा-२२० POON अपात्र कहा जाता है।
तिअर्थ संमिक्तं सार्थ, तीर्थंकर नाम सुद्धये । सम्यक्त्व निधि का पात्र यदि चाण्डाल का भी लाल है।
कर्म विपति त्रिविधं च,मुक्ति पंथ सिधं धुवं ।। २२०॥ तो वह नहीं है नीच, वह भूदेव है महिपाल है॥ सम्यक्त्वनिधि से रहित यदि एक उच्च श्रेष्ठ कुलीन है।
अन्वयार्थ- (तिअर्थ संमिक्तं साध) सम्यक्त्व सहित जो रत्नत्रय की साधना तो वह महान दरित है उससा न कोई हीन है। चंचलजी) करता है (तीर्थंकर नाम सुद्धये) वह तीर्थंकर नामकर्म की प्रकृति बांधकर शुद्ध होता विशेषार्थ- यहाँ सम्यक्त्व की महिमा का वर्णन किया जा रहा है कि जो
है (कर्म विपति त्रिविधं च) और तीनों प्रकार के कर्मों का क्षय होने पर निश्चय से सम्यक्त्व सहित है वह किसी जाति, कुल, किसी पर्याय में हो वह उत्तम है, श्रेष्ठ है।
मोक्षमार्ग और सिद्ध पद पाता है। दोष रहित गुण सहित सुधीजे, सम्यक्पर्श सजे हैं।
विशेषार्थ- सम्यक्त्व सहित जो जीव रत्नत्रय अर्थात् सम्यक्दर्शन, चरित मोहवश लेशन संजम, पै सरनाथ जजै ॥ (छहढाला) सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की साधना करता है वह तीर्थंकर नामकर्म की प्रकृति सम्यक्त्व से हीन यदि कोई उच्च कुल वाला है तो वह अकली अपात्र कहा बांधकर शुद्ध होता है और तीनों प्रकार के कर्म क्षय होने पर निश्चय से मोक्षमार्गी जाता है। इसी बात को रत्नकरण्ड श्रावकाचार में स्वामी समन्तभद्राचार्य कहते हैं
चार में स्वामी समन्तभदाचार्य कहते हैं-3 होता हुआ सिद्ध पद पाता है। सम्यग्दर्शन सम्पन्नमपि मातंग देहजम्।
इसी बात को रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र कहते हैंदेवादेवं विदुर्भस्म गूढांगारान्त रौजसम्॥२८॥
अमरासुर नरपतिभिर्यम धरपतिभिश्च नूनपादाम्भोजाः। सम्यग्दर्शन करि संयुक्त चांडाल के दैहतें उपज्या जो चाण्डाल ताहि हूँ देवा
दृष्टयासुनिश्चितार्था वृष चक्रधरा भवन्ति लोकशरण्याः ॥३९॥ कहिये ,गणधर देवजे हैं ते देव कहे हैं। जैसे भस्म करि दवा जो अंगार ताके आभ्यंतर जो पुरुष सम्यकदर्शन कर सम्यक् निर्णय किये हैं पदार्थ जिनने ते अमरपति, तेज है।
ए असुरपति, नरपति अर संयमनि का पति गणधर तिनकरि वन्दनीक है चरण कमल श्वापि देवापि देवा:श्वा जायते धर्म किल्विषात्।
~ जिनका -अर लोक के शरण में उत्कृष्ट ऐसे धर्म चक्र के धारक तीर्थकर उपज हैं। कापि नाम भवेदन्या संपद्धर्माच्छरीरिणाम् ॥२९॥
जो सम्यक्त्वी होता है उसको ही तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है, उस धर्म के प्रभाव से स्वान जो कूकरो, सोहू स्वर्गलोक में जाय देव उपज है। अर२ सम्यक्त्ववतीर्थकर नाम कर्म के प्रभाव से वह जीव या तो उसीभव से तीर्थंकर होता पाप के प्रभाव तैं स्वर्ग लोक का महान ऋद्धिधारी देव हूँ पृथ्वी में ककरो आय उपजै है अथवा एक भव और लेकर मनुष्य हो तीर्थंकर पदधारी होता है, जिसके इन्द्रादिक है। अर प्राणीनि के धर्म के प्रभावते और हूँ वचनद्वारे नाहीं कही जाए, ऐसी अहमिन्द्रनि
नाहीं काटी जा ऐसी अहमिन्टन देव पाँचों ही कल्याणक करते हैं, भरत व ऐरावत क्षेत्र में पाँचों ही कल्याणक धारी की सम्पदा तथा अविनाशी मुक्ति सम्पदा प्राप्त होय है।
१ जन्म से ही तीर्थंकर होते हैं। तीर्थकर होने वाले जीवों को ऐसा यथार्थ आत्मानुभव गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो, निर्मोहो नैव मोहवान।
8 होता है कि वे अपना लक्ष्य निरन्तर आत्मा की शुद्धि पर ही रखते हैं, किंचित् भी अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः॥३३॥
२२ वैराग्य का बाहरी निमित्त पाते ही वे दीक्षा ले लेते हैं और थोड़े से ही पुरुषार्थ पूर्वक जाके दर्शन मोह नाहीं ऐसा गृहस्थ है,सो मोक्षमार्ग में तिष्ठता है अर मोहवान घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञानी हो जाते हैं फिर जब तक आयु शेष है, यत्र ऐसा अनगार कहिये ग्रहरहित मुनि सो मोक्षमार्गी नाहीं है। याही तैं मोहवान जो मुनि
तत्र आर्य खंड में विहार करके धर्म का उपदेश देते हैं, अंत में सब कर्मों से रहित हो तारौं दर्शन मोह रहित गृहस्थ है सो श्रेयान् कहिये सर्वोत्कृष्ट है।
अर्थात् तीनों ही प्रकार के कर्मों, भाव कर्म-राग द्वेषादि, द्रव्यकर्म - ज्ञानावरणादि इसी सम्यक्त्व की महिमा का वर्णन करते हुए तारण स्वामी अगली गाथा
और नो कर्म-शरीरादि इन सबसे मुक्त होकर शुद्ध सिद्ध हो जाते हैं। यह परमोपकारी कहते हैं
निश्चल सम्यकदर्शन साथ-साथ रहता है, वही मोक्ष में पहुँचा देता है। वहाँ पर भी
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