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________________ 04 श्री श्रावकाचार जी गाथा-२२३ सम्यक् श्रद्धा धारि पुनि,सेवहु सम्यग्ज्ञान। जो बात जैसी है, उसे वैसी समझकर तद्रूप आचरण करें तभी काम चलता है। स्व पर अर्थबहुधर्मजुत,जो प्रगटावन भान॥ इसी बात को आचार्य कुन्दकुन्द देव ने रयणसार ग्रंथ में कहा हैसम्यक् साथै ज्ञान होय,पै भिन्न अराधौ। सम्म विणा सण्णाणं सच्चारितं ण होदि णियमेण । लक्षण श्रद्धा जान, दुहू में भेद अबाधी॥ तो स्यणत्तय माझे सम्मगुणू विकट्ठमिदि जिणुदिटुं॥४५॥ सम्यक् कारण जान, ज्ञान कारज है सोई। सम्यक्दर्शन के बिना सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र नियम से नहीं होते हैं । युगपत होते ह, प्रकाश दीपक रौं होई॥ ॐ इसलिये रत्नत्रय में सम्यक्दर्शन गुण उत्कृष्ट है, यह जिनेन्द्र देव ने कहा है और सम्यग्ज्ञानी होय, बहुरि दिढ़ चारित लीजै। तीनों की एकता के बिना मुक्ति नहीं होती। एकदेश अरु सकलदेश, तसुभेद कहीजै॥ है सम्यक्दर्शन,सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र यह तीनों ऐसे कारण हैं कि इनमें यहाँ प्रश्न आता है कि रत्नत्रय से संपूर्ण शुद्ध होकर अपने अविनाशी शाश्वत से एक भी कम हो जाने पर मोक्ष सुख नहीं मिल सकता; यदि चाहें कि बिना पद को पाता है तो पहले आप अकेले सम्यक्दर्शन की बात कर रहे थे और अब तीनों से सम्यकदर्शन और सम्यक्ज्ञान के केवल सम्यक्चारित्र से ही मोक्ष सुख मिल जाये तो की बात करने लगे, इसका क्या प्रयोजन है स्पष्ट करें? यह कभी नहीं हो सकता किन्तु सम्यकदर्शन और सम्यकज्ञान के साथ रहने वाले इसका समाधान करते हैं कि मूल में तो सम्यक्दर्शन ही है, बगैर सम्यक्दर्शन सम्यक्चारित्र से ही मोक्ष सुख मिल सकता है इसलिये ऐसा चारित्र ही सज्जनों के के तो कुछ होने वाला ही नहीं है परंतु- सम्यक्रदर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग: लिये परम आदरणीय और जगतपूज्य है। यह जैनदर्शन का मूल आधार भी ध्यान में रखना है। अकेले सम्यक्दर्शन से शाश्वत , यदि इस जीव की सम्यक्दर्शन और सम्यक्ज्ञान के बल से शुद्ध चिद्रूप में सिद्ध पद मिलने वाला नहीं है। इसके लिये तारण स्वामी ने मालारोहण पंडितपूजा निश्चल रूप से स्थिति हो जाये और पर पदार्थों से सर्वथा प्रेम हट जाय तो उसी को और कमलबत्तीसी में इन तीनों का बहुत सरल सहज अनुभव गम्य स्वरूप बताया शुद्ध निश्चय नय से चारित्र समझना चाहिये। है,जो हर साधक को अनुकरणीय है। मालारोहण की आठवीं गाथा से इसी बात को निश्चय नय के अभिप्रायानुसार आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिये स्पष्ट किया है कि पहले सम्यक्त्व को शुद्ध करो अर्थात् मुझे निज शुद्धात्मानुभूति होतन्मय होना ही निश्चय सम्यचारित्र है। ऐसे चारित्रशील योगी को ही निर्वाण गई इसका पक्का निर्णय करो। की प्राप्ति होती है। वहाँ प्रश्न आया कि कौन से सम्यक्त्व की बात है तो कहते है कि कोई भी सम्यक्दृष्टि जीव जागा हुआ सिंह होता है और सिंह की यह विशेषता होती है हो-उपशम,वेदक, क्षायिक इसमें कोई अंतर नहीं पड़ता परंतु यह निर्णय पक्का हो कि जागने के बाद वह प्रमाद में पड़ा नहीं रहता। अपने कार्य में सक्रिय हो जाता है जाये कि मैं आत्मा हूँ यह शरीरादि मैं नहीं हूँऔर वह आत्मा कैसा हूँयह भी अनुभूतियुत 3 और जिसे पकड़ लेता है फिर उसे छोड़ता नहीं है। इसी प्रकार सम्यक्दृष्टि जीव भी होना. यही सम्यक्त्व की शद्धि है तथा ज्ञान की शुद्धि स्व-पर का यथार्थ निर्णय, अपने सिद्ध पद का पुरुषार्थ करता है। इसी बात को अगली गाथा में कहते हैंजिसमें कोई संशय,विभ्रम,विमोह न हो, वस्तु स्वरूप तो ऐसा ही है। ऐसा यथार्थ जस्स हृदयं संमिक्तस्य,उदयं सास्वतं स्थिरं । निर्णय होना ज्ञान की शुद्धि है; और इन दोनों के होने पर चारित्र की शुद्धि होना जो 5 निश्चय-व्यवहार के समन्वय पूर्वक हो क्योंकि वर्तमान संयोगी दशा में बगैर द्रव्य तस्य गुनस्य नाथस्य, असक्य गुण अनंतयं ।। २२३॥ 1 संयम के भाव संयम नहीं होता। पाप-परिग्रह.मोह.राग-द्वेष, विषय-कषायों से हटे अन्वयार्थ- (जस्स हृदयं संमिक्तस्य) जिसके हृदय में सम्यक्त्व का (उदयं बचे बगैर स्वरूप में रमणता होती ही नहीं है, यह जैनदर्शन का बड़ा सूक्ष्म मार्ग है। सास्वत स्थिर) उदय होकर शाश्वत स्थिर हो जाता है अर्थात् क्षायिक सम्यकदर्शन 5 यहाँ कोरी बातें करने मन समझाने या मनमानी करने से भला होने वाला नहीं है। हो जाता है (तस्य गुनस्य नाथस्य) वह गुणों का नाथ हो जाता है (असक्य गुण १४७
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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