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१ श्री आवकाचार जी
का भी विचार नहीं है, व्यसनों से विरक्ति नहीं है। मोक्षमार्ग के विपरीत आत्मानुभव से शून्य साधु नामधारी साधुओं को मान करके भक्ति करना उनमें साधुपने की श्रद्धा रखना पाखंड मूढ़ता है, जो सम्यक्दृष्टि को प्रथम ही त्याज्य है।
जो धातु पाषाण आदि की मूर्तियां बनवाते हैं, उनमें देवत्वपना सिद्ध करते हैं, चमत्कार आदि के द्वारा लोगों को प्रभावित करते हैं। झूठे शास्त्र रचकर उसमें पूजा विधान लिखते हैं, नाना प्रकार की महिमा बताकर लोगों को रंजायमान करते हैं, मिथ्या माया में फंसाते हैं ऐसे पाखंडी मूढ कुगुरुओं का विश्वास करने वाले मनुष्यों को नरक जाना पड़ता है; क्योंकि वह घोर मिथ्यात्व का पोषण करते हैं ऐसे पाखंडी साधुओं के वचनों पर विश्वास करना, उनके झूठे आगमों का प्रचार या प्रकाशन करना जो जिनेन्द्र के अनेकांत मत के विरोधी शत्रु हैं, दुष्ट बुद्धि रखने वाले हैं इनकी आराधना वन्दना भक्ति करना नरक में गिराने वाली है।
ऐसे कुगुरुओं की सेवा करने से मिथ्यात्व और अज्ञान अधिक बढ़ जाता है, यह पाखंडी साधु स्वयं मायाचार में फंसे रहते हैं और जीवों को मिथ्या माया में फंसाते हैं। जिनके पास न वैराग्य है, न संयम है, न आत्मज्ञान है, न मोक्ष की भावना है, जो मात्र संसार को बढ़ाने वाली पाषाण की नौका के समान हैं, जो आप भी डूबेंगे और दूसरों को भी डुबायेंगे। ऐसे पाखंडी साधुओं ने बहुत से मिथ्याशास्त्र बना दिये हैं, जिनमें मिथ्यात्व का, राग-द्वेष का व हिंसा का पोषण किया गया है। कुदेव - अदेव आदि की पूजा विधान बनाये हैं, पराधीनता परावलम्बता का पोषण किया है; जबकि जिनेन्द्र परमात्मा की वाणी जैन आगम स्याद्वाद नय से जैसा पदार्थ अनेकांत स्वरूप है वैसा ही झलकाने वाला है, ज्ञान वैराग्य का प्रकाश करने वाला है, आत्मा को सुख शांति के मार्ग में लगाने वाला है, संयम को दृढ़ कराने वाला है, उसका एकान्त से प्रतिपादन कर अपने मत पक्ष करने वाले पाखंडियों के जाल से बचना चाहिये। जो कुलिंगी हैं वह तो पाखंडी कुमति अज्ञानी हैं ही परन्तु जो जिनलिंग को धारण करके विपरीत आचरण करते हैं या अपना मनमाना भेष बनाकर अपने को गुरू मनवाते हैं, यह सब जिनेन्द्र के मार्ग का लोप करने वाले जिनद्रोही हैं। ऐसे मिथ्यात्वी पाखंडियों के वचनों पर, उनके आगम पर विश्वास नहीं करना चाहिये यह दुर्गति का पात्र बनाने और नरक में ले जाने वाले हैं।
गृहस्थ श्रावक को रत्नत्रय के आचरण में प्रथम सम्यक्दर्शन की आराधना का मुख्य स्थान है इसमें सम्यक्दर्शन के पच्चीस मलों से रहित शुद्ध सम्यक्त्व
SYA YA FANART YEAR.
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गाथा-२६०-२५२
अर्थात् निज शुद्धात्म स्वरूप की साधना आराधना करने वाला ही शुद्ध सम्यकदृष्टि होता है।
इस तरह पच्चीस दोषों से रहित शुद्ध सम्यक्त्व का पालन करते हुए व्यवहार की ऐसी क्रियाओं को पालना जिनसे श्रद्धान दृढ़ रहे, किसी प्रकार का कोई मल दोष न लगे, सद्गुरुओं का सत्संग, सत्शास्त्रों का स्वाध्याय, चिन्तन-मनन आत्मानुभूति के लिये सामायिक का निरन्तर अभ्यास साधना करते रहना चाहिये, तब ही सम्यक्दर्शन की शुद्धि और दृढ़ता होती है।
आगे सम्यक्ज्ञान की शुद्धि और साधना का वर्णन करते हैंन्यानं तत्वानि वेदंते, सुद्ध तत्व प्रकासकं ।
सुद्धात्मा तिअर्थ सुद्धं, न्यानं न्यान प्रयोजनं ॥ २५० ॥
अन्वयार्थ - (न्यानं तत्वानि वेदंते) ज्ञान वही है जो जीवादि सात तत्वों का अनुभव करावे (सुद्ध तत्व प्रकासकं ) शुद्ध तत्व का प्रकाश करने वाला हो (सुद्धात्मा तिअर्थं सुद्धं) शुद्धात्मा रत्नत्रय से शुद्ध है (न्यानं न्यान प्रयोजनं) ऐसा ज्ञान कराने वाला ज्ञान ही प्रयोजनीय है।
विशेषार्थ - यहाँ सम्यक्ज्ञान की शुद्धि और साधना का स्वरूप बताते हैं कि सम्यक्ज्ञान वही है जो जीवादि सात तत्वों का यथार्थ अनुभव करावे, जिसमें संशय विभ्रम विमोह रहित स्व-पर का यथार्थ स्वरूप अनुभव में आवे, शुद्धात्मा - रत्नत्रय अर्थात् सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र अथवा द्रव्य, गुण, पर्याय तीनों से शुद्ध है, ऐसा ज्ञान कराने वाला ज्ञान ही प्रयोजनीय है। जिसमें चारों अनुयोग, पांच समवाय, दोनों नय (निश्चय व्यवहार) का यथार्थ ज्ञान हो, अनेकान्त का बोध हो और निज शुद्धात्मा ध्रुव तत्व का अनुभव प्रमाण ज्ञान हो, एक-एक समय की पर्याय क्रमबद्ध निश्चित है इसका भी पूर्ण ज्ञान हो वही ज्ञान सम्यक्ज्ञान कहलाता है ।
इसी बात को आगे और स्पष्ट करते हैं
न्यानेन न्यानमालंबं, पंच दीप्ति प्रस्थितं ।
उत्पन्नं केवलं न्यानं, सुद्धं सुद्ध दिस्टितं ।। २५१ ॥ न्यानं लोचन भव्यस्य, जिन उक्तं सार्धं धुवं ।
सुयं एतानि विन्यानं, सुद्ध दिस्टि समाचरेत् ।। २५२ ।।
अन्वयार्थ - (न्यानेन न्यानमालंबं ) सम्यक्ज्ञान या श्रुतज्ञान के द्वारा आत्मज्ञान