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________________ womo श्री श्रावकाचार जी गाथा-२५३,२५४ C O . को दृढ करते हुए जो (पंच दीप्ति प्रस्थितं) पंचज्ञान में श्रेष्ठ रूप से स्थित है (उत्पन्न स्वरूप परिज्ञान तज्ज्ञानं निश्चयाद वरं। केवलंन्यानं) केवल ज्ञान प्रगट करता है (सुद्धं सुद्ध दिस्टितं) यही शुद्ध दृष्टि का शुद्ध कर्मरेणूच्चये बातं हेतुं विद्धि शिवश्रियः ॥१२॥ आचरण है। भगवान जिनेन्द्र ने व्यवहार नय से आठ प्रकार के आचारों से युक्त ज्ञान (न्यानं लोचन भव्यस्य) जिस भव्य के ज्ञान नेत्र खुल गये (जिन उक्तं साधं 8 बतलाया है और उससे समस्त पदार्थों का भली प्रकार प्रतिभास होता है परन्तु जिससे धुवं) वह जिनेन्द्र के कहे अनुसार अपने ध्रुव तत्व की साधना करता है (सुयं एतानि स्व स्वरूप का ज्ञान हो, जो शुद्ध चिद्रूप को जाने वह निश्चय सम्यक्ज्ञान है, वह विन्यानं) भेदविज्ञान और श्रुतज्ञान सहित (सुद्ध दिस्टि समाचरेत्) शुद्ध दृष्टि सम्यक् निश्चय सम्यक्ज्ञान समस्त कर्मों का नाशक है और मोक्षरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति में आचरण करता है। परम कारण है, इससे मोक्ष सुख अवश्य प्राप्त होता है। विशेषार्थ- सम्यक्ज्ञानी अपने ज्ञान के द्वारा आत्मबल बढ़ाता है, पुरुषार्थ , सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान सहित सम्यक्चारित्र की साधना ही मुक्ति का मार्ग जगाता है, और पंचज्ञान में श्रेष्ठ रूप से स्थित जो केवलज्ञान उसे प्रगट करता है यही है इसी बात को आगे कहते हैंशुद्ध दृष्टि का शुद्ध आचरण है। जिस भव्य के ज्ञान नेत्र खुल गये वह भेदविज्ञान और आचरनं स्थिरी भूतं,सुद्ध तत्व तिअर्थक। श्रुतज्ञान द्वारा आत्मा-अंतरात्मा के स्वरूप को जानता है कि मेरा आत्मा वास्तव में उर्वकारं च वेदंते, तिस्टते सास्वतं धुवं ।। २५३ ।। सर्व राग-द्वेषादि विकारों से व ज्ञानावरणादि कर्म मलों से तथा शरीरादि संयोग से अन्वयार्थ- (आचरनं स्थिरी भूतं) सम्यक् आचरण-स्थित हो जाना है (सुद्ध रहित है इस प्रकार भेदज्ञान का बार-बार अभ्यास करने से जितना आत्मबल बढ़ता तत्व तिअर्थक) उसमें, शुद्ध आत्मीक तत्व जो रत्नत्रयमयी है (उर्वकारं च वेदंते) है पुरुषार्थ काम करता है उतना आत्मध्यान होने लगता है। जितना आत्म ध्यान ! है ऐसा ॐकार मयी परमात्म स्वरूप अनुभव में आता है (तिस्टते सास्वतं धुवं) जो बढ़ता है उतना ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है, इससे मतिज्ञान श्रुतज्ञान ए अपने अविनाशी पद में विराजमान है। की शक्ति बढ़ती है, इसी आत्म ध्यान की योग्यता से सम्पूर्ण द्वादशांग का ज्ञान हो - विशेषार्थ- यहाँ सम्यक्चारित्र की साधना का वर्णन चल रहा है। सम्यक्चारित्र जाता है, आत्मा श्रुतकेवली हो जाता है। इससे ही अवधिज्ञान, मनः पर्ययज्ञान का उसे कहते हैं, जहां उपयोग अपने शुद्धात्म तत्व में स्थित हो जाता है. जहां अपने प्रकाश हो जाता है तथा इसी आत्मध्यान से उन्नति करते-करते जब वह शुक्ल ध्यान के रूप में हो जाता है, एकाग्र शुद्धोपयोग हो जाता है, तब वही ज्ञान केवलज्ञान 2 ॐकार मयी परमात्म स्वरूप का अनुभव होता है, जो अपने शाश्वत अविनाशी पद के रूप में परिणत हो जाता है। में विराजमान है। सम्यक्चारित्र का अर्थपरमानन्द में स्थित होजाना है, जो अतीन्द्रिय भव्य जीव जगत के पदार्थ को ज्ञान रूपी आंख से देखता है, जो अन्तरंग में है और अविनाशी स्वरूप है, इसी का बार-बार अनुभव करना. इसी में स्थित हो जाना प्रकाशमान रहती है, शरीर की दोनों आंखें तो मात्र रूपी स्थूल पदार्थों को ही जोड़ १ सम्यक्चारित्र है। इसकी साधना अव्रती सम्यक्दृष्टि करता है। जैसे-तिल में तेल, वर्तमान में सामने हैं उन्ही को देख सकती हैं परन्तु भेदविज्ञान और श्रुत ज्ञान से प्राप्त फूल में खुशबू, रंग मिले पानी में रंग और पानी अलग-अलग हैं, ऐसे ही इस देह और हुई सम्यज्ञान की आंख सर्व पदार्थों को यथार्थ देख लेती है, जैसा वस्तु का स्वरूप कर्मादि से आत्मा भिन्न है। ऐसा भेदविज्ञानी सम्यक्दृष्टि अनुभव करता है और इस है, उसको वैसा ही ठीक-ठीक जान लेना ही ज्ञान नेत्र सम्यक्ज्ञान का कार्य है। 15 शुद्धनय की दृष्टि से ज्ञानबल से अपने उपयोग को शुद्ध स्वरूप में स्थित करना, 9) इसी बात को तत्वज्ञान तरंगिणी में भट्टारक ज्ञानभूषण जी ने कहा है रमने-जमने का अभ्यास करना ही सम्यक्चारित्र की साधना है। अष्टधाचार संयुक्तं ज्ञानमुक्त जिनेशिना। यह आचरण दो प्रकार का कहा गया है, जिसका आगे वर्णन करते हैंव्यवहार नयात् सर्व तत्वोद्धासो भवेद्यतः ॥११॥ आचरनं द्विविध प्रोक्तं, संमिक्तं संयम धुवं । प्रथमं संमिक्त चरनस्य,स्थिरी भूतस्य संजमं ।। २५४॥
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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