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Our श्री आवकाचार जी
गाथा- २५४,२५५ P OOR चारित्रं संजमं चरनं, सद्ध तत्व निरीष्यनं ।
संयमाचरण चारित्र को अंगीकार करे तो शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त करता है। आचरनं अवधि दिस्टा,सार्थ सुख दिस्टितं ॥ २५५॥
सम्मत्त चरण सुद्धा संजमचरणस्स जइव सुपसिद्धा। अन्वयार्थ- (आचरनं द्विविधं प्रोक्तं) आचरण दो प्रकार का कहा गया है
णाणी अमूढ़ दिठ्ठी अचिरे पावंति णिव्वाणं ॥९॥
जो ज्ञानी होते हुए अमूढदृष्टि होकर सम्यक्त्वाचरण चारित्र से शुद्ध होता है (समिक्तं संयम धुर्व) एक सम्यक्त्व आचरण है दूसरा निश्चल संयमाचरण है (प्रथम
और जो संयमाचरण चारित्र से सम्यक् प्रकार शुद्ध हो तो शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त । समिक्तचरनस्य) पहला सम्यक्त्वाचरण है जो मात्र श्रद्धान में स्थिर होना है (स्थिरी भूतस्य संजमं) और दूसरा संयमाचरण अपने स्वरूप में स्थित होना है, जिसमें अपने 7. स्वरूप के श्रद्धान ज्ञान सहित निर्विकल्प अतीन्द्रिय आनंद की अनुभूति होती है।
इसी बात को पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं(चारित्रं संजमंचरन) संयमाचरण चारित्र में (सुद्ध तत्व निरीष्यन) अपने शुद्धात्म;
इति पत्नत्रय मेततातिसमय विकलमपि गृहस्थेन। स्वरूप का निरीक्षण होता है अर्थात् देखना-भालना मिलना होता है (आचरनं अवधि
परिपालनीयमनिशं निरत्ययां मुक्तिमभिलषिता ।।२०९॥
इस प्रकार यह सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रत्नत्रय प्रतिसमय दिस्टा) इस प्रकार कुछ-कुछ समय के लिये देखना मिलना ही सम्यक्चारित्र की (साधं सुद्ध दिस्टितं) साधना है जो सम्यक्दृष्टि करता है।
गृहस्थ श्रावक को भी यदि सर्वदेश पालन न हो सके तो एकदेश ही निरन्तर अविनाशी
मोक्ष का इच्छुक होते हुए पालन करना चाहिये। विशेषार्थ- सम्यक् आचरण दो प्रकार का कहा गया है-पहला सम्यक्त्वाचरण
मुनि के तो रत्नत्रय पूर्ण रूप से है परन्तु गहस्थ श्रावक सम्पूर्ण रत्नत्रय का और दूसरा संयमाचरण है। पहला सम्यक्त्वाचरण- में शुद्ध ज्ञाता-दृष्टा आनन्दमयो, पालन नहीं कर सकता इसलिये उसे एकदेश पालन करना चाहिये। किसी भी दशा में राग-द्वेष से भिन्न हूं, ऐसे श्रद्धान में दृढ़ स्थिर होना है। दूसरा संयमाचरण-शुद्धात्मा उसे रत्नत्रय से विमुख नहीं होना चाहिये क्योंकि वह रत्नत्रय ही मुक्ति का कारण है। के अनुभव में स्थिर होना संयमाचरण है, इसमें अपने शुद्धात्म स्वरूप को देखना मनि का रत्नत्रय महाव्रत के योग से साक्षात् मोक्ष का कारण है और श्रावक का मिलना और थोड़े-थोड़े समय के लिये स्थिर होने की साधना अव्रत सम्यकदृष्टि
रत्नत्रय अणुव्रत के योग से परम्परा मोक्ष का कारण है अर्थात् जिस श्रावक को करता है।
सम्यकदर्शन हो जाता है उसका अल्प ज्ञान भी सम्यकज्ञान और अणुव्रत भी जहाँ स्वरूपाचरण चारित्र है वहीं शुद्धात्मीक दृष्टि है यही परम मंगलकारी है,
सम्यकचारित्र कहा जाता है। इसलिये रत्नत्रय का धारण करना अत्यन्त आवश्यक यही कर्मों के बंध को क्षय करने वाली है, यही बार-बार आराधने योग्य है।
र है। सात तत्वों की श्रद्धा करना व्यवहार सम्यकदर्शन है और निज स्वरूप की श्रद्धा इसी बात को चारित्रपाहुड़ में श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं
5 अर्थात् स्वानुभव होना निश्चय सम्यकदर्शन है। जिनागम से सात तत्वों को जान जिण णाण दिविसुद्धं पढ़मं सम्मत्त चरण चारित्तं ।
लेना व्यवहार सम्यक्ज्ञान है और निज स्वरूप का भान अर्थात् आत्मज्ञान निश्चय विवियं संजमचरणं जिणणाणसदेसियंत पि ॥५॥
2 सम्यक्ज्ञान है। अशुभ कार्यों की निवृत्ति पूर्वक शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना व्यवहार चारित्र को दो प्रकार का कहा है- प्रथम तो सम्यक्त्व का आचरण कहा जो
सम्यक्चारित्र है और शुभ प्रवृत्तियों से भी निवृत्त होकर शुद्धोपयोग रूप निज स्वरूप सर्वज्ञ के आगम में तत्वार्थ का जैसा स्वरूप कहा है, इसको यथार्थ जानकर श्रद्धान 5 शिरोनानि
करणखान में स्थिर होना निश्चय सम्यक्चारित्र है। इस तरह रत्नत्रय का संक्षेप में वर्णन किया, करना उसमें शंकादि दोषों का न होना, अपने आत्म स्वरूप की प्रतीति सम्यक्त्वाचरण
श्रावक को इसका एकदेश पालन अवश्य ही करना चाहिये, बिना रत्नत्रय के किसी चारित्र है और जो महाव्रत आदि अंगीकार करके सर्वज्ञ के आगम में कहा है उस प्रकार
जीव का कल्याण कदापिहो नहीं सकता। संयम का आचरण करना आत्म स्वरूप में स्थित रहना संयमाचरण चारित्र है।
सम्यक्त्व बोध चारित्र लक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः । आगे कहते हैं कि जो इस प्रकार सम्यक्त्वाचरण चारित्र को अंगीकार करके
मुख्योपचाररूपः प्रापयति परं पदं पुरुषम् ।।२२२॥ १६१