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________________ w श्री आचकाचार जी गाथा-२५५ LOON हैं, यह तो जो जीव जाग गया है अर्थात् जिसे निज शुद्धात्मानुभूति हुई है, जिसने विशेषार्थ- यहाँ रत्नत्रय की साधना के स्वरूप का वर्णन किया जा रहा है, ऐसा जाना है कि इस शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंडअविनाशी चैतन्य तत्व भगवान रत्नत्रय अर्थात् सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंमय ही शुद्धात्म आत्मा हूं, जो सिद्ध के समान शुद्ध परम ब्रह्म परमात्म स्वरूप है, यह शरीरादि मैं ५ स्वरूप है। इन तीनों की एकता मोक्षमार्ग है और पूर्णता मोक्ष है। अव्रत सम्यकदृष्टि नहीं और यह मेरे नहीं तथा-जिस जीव का जिस द्रव्य का जिस समय जैसा जो कुछ जघन्य पात्र अन्तरात्मा जिसके जीवन में अठारह क्रियाओं का पालन सहज में होता है,७ होना है वह अपनी तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है और होगा उसे कोई टाल फेर उसमें प्रथम सम्यक्त्व और फिर आठ मूलगुण का वर्णन किया, यहाँ तीन रत्नत्रय की बदल सकता नहीं है, जो यह अनुभव प्रमाण स्वीकार करता है वह अव्रत सम्यक्दृष्टि 5 साधना का, उसके स्वरूप सहित वर्णन किया जा रहा है कि यह रत्नत्रय अर्थात है तथा जिसे संसार, शरीर, भोगों से वैराग्य भाव जागा है, जो इन सारे संयोगों से सम्यक्दर्शन,सम्यक्ज्ञान,सम्यक्चारित्र की साधना अपनेशुद्धात्मा के गुणों की साधना छूटना चाहता है, उसके जीवन में यह अठारह क्रियायें सहज में ऐसी ही पलती हैं है, इससे अपने निज तत्वशुद्धात्म स्वरूप का नित्य प्रकाश बढ़ता है और यही साधना क्योंकि जिसके अन्तर में न अब कुछ खाने का भाव है,न करने का भाव है, न भोगने एक दिन अपने ज्ञानमयी ध्रुव तत्व शुद्ध चिद्रूपको प्रगट करा देती है अर्थात् अरिहन्त का भाव है न कुछ कहने, सुनने बोलने का भाव है, बस वह तो मजबूरी में रह रहा है, सर्वज्ञपद तथा सिद्ध पद प्रगट हो जाता है। इसी बात को तत्वज्ञान तरंगिणी में भट्टारक कर रहा है खा रहा है तो बताओ उसका आचरण कैसा होगा? अरे! उसे तो जो कुछ ज्ञानभूषण जी ने जो तारण स्वामी के समकालीन संवत् १५६० में हुए यही बात कही जैसा रूखा-सूखा मिल जाये सिर्फ पेट ही तो भरना है, उसकी रस लोलुपता नहीं हैरहती फिर बताओ क्या वह भक्ष्य-अभक्ष्य खायेगा, कोई हिंसादि पाप क्रिया का रत्नत्रयोपलं भेन बिना शुद्धचिदात्मनः । व्यापार करेगा? यह उसे छोड़ना नहीं पड़ते अपने आपछूट जाते हैं। अव्रत सम्यकदृष्टि प्रदुर्भावो न कस्यापि यते हि जिनागमे । जिसका विवेक जाग गया है, वह कैसा होता है यह तो उसे उसी रूप में हम स्वयं वैसे बिना रत्नत्रयं शुद्ध चिद्रूपं न प्रपन्नवान्। बनकर देखें तब पता लगता है। यहाँ तारण स्वामी ने किसी शास्त्र की नकल नहीं ॐ कदापिकोऽपि केनापिप्रकारेण नरः क्वचित्॥१२/१,२॥ की, यह तो जो उनके जीवन में घटित हुआ, वह लिखा है और यही सत्य है ध्रुव है जैन आगम से यह बात स्पष्ट जानी जाती है कि बिना रत्नत्रय को प्राप्त किये प्रमाण है। यहाँ ऊपर से लगाये गये पत्तों फूलों की बात नहीं की जा रही, यहाँ तो आज तक किसी भी जीव को शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति नहीं हुई अर्थात् परमात्म पद प्राप्त भीतर से स्वयं पैदा होता है उसके पत्ते फूलों और फल की बात की जा रही है। अव्रत नहीं हुआ। बिना रत्नत्रय अर्थात् सम्यकदर्शन, सम्यज्ञान, सम्यक्चारित्र को प्राप्त सम्यक्दृष्टि का जीवन इतना ही प्रमाणित होता है तभी वह सही सम्यक्दृष्टि है। किये आज तक किसी मनुष्य ने कहीं और कभी भी किसी दूसरे उपाय से शुद्ध चिद्रूप अब आगे अव्रत सम्यक्दृष्टि की अठारह क्रियाओं में रत्नत्रय की साधना के को नहीं पाया। स्वरूप का वर्णन किया जा रहा है रत्नत्रयाद्विना चिद्रूपोपलब्धिर्न जायते। दर्सनं न्यान चारित्रं, सार्थ सुद्धात्मा गुनं । यथास्तिपसः पुत्री पितुर्वशिलाहकात्॥१२/३॥ तत्व नित्य प्रकासेन,सार्धं न्यान मयं धुवं ॥ २३५॥ जिस प्रकार तप के बिना ऋद्धि, पिता के बिना पत्री और मेघ के बिना वर्षा नहीं हो सकती, उसी प्रकार बिना रत्नत्रय की प्राप्ति के शुद्ध चिद्रूप की भी प्राप्ति नहीं हो अन्वयार्थ- (दर्सनं न्यान चारित्र) सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र सकती। की साधना (सार्धं सुद्धात्मा गुन) शुद्धात्मा के गुणों की साधना या श्रद्धान है (तत्व दर्शन ज्ञान चारित्र स्वरूपात्म प्रवर्तनं । नित्य प्रकासेन) इससे अपने निज तत्व का हमेशा प्रकाश होता है (सार्ध न्यान मयं युगपद् भव्यते रत्नत्रयं सर्वजिनेश्वरैः॥१२/४॥ धुवं) यही साधना ज्ञानमयी ध्रुव तत्व को प्रगट कराती है। भगवान जिनेश्वर ने एक साथ सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र १५३
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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