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w श्री आचकाचार जी
गाथा-२३६,२३७ c ou स्वरूप आत्मा की प्रवृत्ति को रत्नत्रय कहा है।
(दर्सनं सप्त तत्वानं) सम्यकदर्शन सात तत्वों का (दर्व काय पदार्थक) छहयहाँ कोई प्रश्न करे कि क्या यह रत्नत्रय की साधना एकदम एक साथ होती है द्रव्यों का, पांच अस्तिकाय और नौ पदार्थ का यथार्थ निर्णय करना और इनमें (जीव या क्रम से करना पड़ती है?
द्रव्यं च सुद्धं च) एक मात्र जीव द्रव्य जो अपने स्वभाव से शुद्ध है (सार्धं सुद्धं दरसन) उसका समाधान करते हैं कि भाई ! यह रत्नत्रय शुद्धात्मा के गुण हैं और सब* इसका श्रद्धान करना ही शुद्ध सम्यक्दर्शन है। एक साथ रहते हैं, अब साधक अपनी पात्रता और परिस्थिति अनुसार किस प्रकार विशेषार्थ-यहाँ रत्नत्रय की साधना के अंतर्गत प्रथम सम्यक्दर्शन के स्वरूप साधना करता है, इसमें एकरूपता नहीं होतीपरन्तु तीनों की एकता हुए बगैर मोक्षमार्ग का वर्णन कर रहे हैं कि वह सम्यक्दर्शन निश्चय-व्यवहार की अपेक्षा दो प्रकार का नहीं बनता और तीनों की पूर्णता होने पर मोक्ष अर्थात् शुद्ध चिद्रूप परमात्म पद होता होता है। तत्वों का श्रद्धान करना व्यवहार सम्यक्दर्शन है और रत्नत्रय से परिपूर्ण है इसमें अन्यथा भेद नहीं हो सकता।
है शुद्धज्ञानमयी चैतन्यमूर्ति स्व आत्मा का दर्शन अर्थात् निजशुद्धात्मानुभूति ही निश्चय फिर प्रश्न आता है कि आप सम्यकदर्शन की प्रमुखता कहते हैं और फिर तीनों सम्यकदर्शन है, और स्पष्ट करने के लिये दूसरी गाथा में खुलासा किया है कि सात की एकरूपता कहते हैं तो आखिर इसका क्रम क्या है ? इसका समाधान करते हैं कि तत्व-जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष। छह द्रव्य-जीव, पुद्गल, भाई! सम्यकदर्शन तो प्रमुख है ही बगैर सम्यकदर्शन अर्थात् निज शुद्धात्मानुभूति के धर्म, अधर्म, आकाश, काल । पंचास्तिकाय-जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, सम्यक्ज्ञान सम्यक्चारित्र होता ही नहीं है इसलिये सबसे पहले भेदज्ञान पूर्वक स्व- धर्मास्तिकाय,अधर्मास्तिकाय,आकाशास्तिकाय। नौ पदार्थ-जीव, अजीव, पुण्प, पर का यथार्थ निर्णय कर अपने आत्म स्वरूप का सत्श्रद्धान करना, वैसे सम्यक्दर्शन पाप, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष। होते ही सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र एक साथ ही एक समय में होते हैं; परन्तु
इन सत्ताईस तत्वों का यथार्थ निर्णय, इनके भेद और स्वरूप को जानना सम्यक्दर्शन अपने में पूर्ण है और सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र में क्रमशः विकास होता व्यवहार सम्यक्दर्शन है और इनमें एक मात्र जीव द्रव्य जो स्वभाव से शुद्ध है है,यह एकदम एक साथ पूर्ण नहीं होते, इनकी साधना करना पड़ती है और यह जीव उसका श्रद्धान करना ही शुद्ध सम्यकदर्शन है। की पात्रता, पुरुषार्थ पर क्रमशः बढ़ते हैं।
यहां कोई प्रश्न करे कि तत्वार्थ सूत्र में तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यकदर्शन, यह इसी बात को यहाँ तारण स्वामी सबसे पहले सम्यक्दर्शन की पूर्णता और सूत्र आया है कि तत्वार्थ का श्रद्धान ही सम्यक्दर्शन है फिर व्यवहार-निश्चय का शुद्धता की बात करते हैं तथा सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की साधना पूर्वक विकास 2 भेद कहां से आया? का क्रम निरूपित करते हैं पर तीनों की एकता मोक्षमार्ग और तीनों की पूर्णता ही मोक्ष इसका समाधान करते हैं कि यह व्यवहार-निश्चय भेद कहीं से आया नहीं है, है यह निश्चित है और इसकी साधना करना ही प्रत्येक साधक का कर्तव्य है- ९ यह तो जैन दर्शन का मूल आधार है। तत्वार्थ सूत्र में भी इसी बात को कहा है कि तत्व दर्सनं तत्व सार्थच,तिअर्थ सुद्ध दिस्टतं।
(वस्तु) के स्वरूप सहित अर्थ,जीवादि पदार्थों की श्रद्धा करना सो सम्यकदर्शन मय मूर्ति संपूर्न च,स्वात्म दर्सन चिंतनं ॥ २३६ ॥
3 इस सूत्र में निश्चय सम्यक्दर्शन का ही लक्षण है, व्यवहार सम्यक्दर्शन का दर्सनं सप्त तत्वानं,दर्व काय पदार्थकं ।
नहीं अर्थात् तत्व, द्रव्य, पदार्थ, अस्तिकाय इनके नाम आदि जान लेना तथा ऐसा जीव द्रव्यं च सुद्धच, सार्थ सुद्धं दरसनं ।। २३७॥
शास्त्र में कहा है, यह सत्य है ऐसा स्वीकार करना यह व्यवहार सम्यक्दर्शन है। अन्वयार्थ- (दर्सनं तत्व सार्धंच) तत्व का श्रद्धान सम्यक्दर्शन है और (तिअर्थ जैसे- इस बोरी में शकर रखी है तो यह शकर मीठी होती है, इस प्रकार बनती है, शुद्ध दिस्टतं) रत्नत्रय से शुद्ध देखना (मयमूर्तिसंपूर्नच) ज्ञानमयी अपने गुणों से परिपूर्ण इस मिल की बनी है और अच्छी गुणवत्ता की है, ऐसा जानना मात्र कोई कार्यकारी १ चैतन्यमूर्ति है ऐसे (स्वात्म दर्सन चिंतनं) स्व आत्मा का दर्शन और चिन्तवन करना। हितकारी नहीं है, उस शकर को चखना, उसका प्रयोग करना, यह निश्चय है और
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