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Our श्री बाचकाचार जी
गाथा-२५८-२४० ROO यही कार्यकारी हितकारी है। इसी प्रकार इन तत्वों के नाम भेदादि जान लेना और जाने और शुद्ध नय से आत्मा को न जाने तब तक पर्याय बुद्धि है। शास्त्र के अनुसार श्रद्धान करना यह व्यवहार सम्यकदर्शन है। इसमें से प्रयोजनभूत
इस अर्थ का कलश रूप काव्य कहते हैंजीव तत्व में हूँ।जो चैतन्य लक्षण वाला सबमें श्रेष्ठ है ऐसे अपने स्वरूप की अनुभूति
चिरमिति नवतत्वच्छन्न मुत्रीय मानं, भेदज्ञान पूर्वक यथार्थ श्रद्धान करना निश्चय सम्यक्दर्शन है। इसी बात को
कनकमिव निमग्नं वर्णमाला कलापे। अमृतचन्द्राचार्य ने समयसार कलश ६ में स्पष्ट किया है।
अथ सततविविक्तं दृश्यतामेक रूपं, एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः,
प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम् ॥८॥ पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यांतरेभ्यः पृथक् ।
इस प्रकार नव तत्वों में बहुत समय से छिपी हुई यह आत्म ज्योति शुद्ध नय सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं,
है से बाहर निकालकर प्रगट की गई है। जैसे-वर्णों के समूह में छिपे हुए एकाकार स्वर्ण तन्मुक्त्वा नवतत्व संततिमिमामात्मायमेकोस्तु नः॥
को बाहर निकालते हैं इसलिये हे भव्य जीवो ! इसे सदा अन्य द्रव्यों से तथा उनसे इस आत्मा को अन्य द्रव्यों से पृथक् देखना (श्रद्धान करना) ही नियम से होने वाले नैमित्तिक भावों से भिन्न एकरूप देखो। यह (ज्योति) पद पद पर अर्थात् सम्यकदर्शन है। यह आत्मा अपने गुण पर्यायों में व्याप्त रहने वाला है और शुद्ध नय प्रत्येक पर्याय में एकरूप चिच्चमत्कार मात्र उद्योतमान है। से एकत्व में निश्चित किया गया है तथा पूर्ण ज्ञानघन है ऐसा जितना सम्यकदर्शन है।
आगे इसी सम्यक्दर्शन की विशेषता का वर्णन करते हैं - उतना ही आत्मा है इसलिये आचार्य प्रार्थना करते हैं कि इस नव तत्व की परिपाटी को
दर्सनं आ ऊर्थच, मध्य लोकेन दिस्टते। छोड़कर यह एक आत्मा ही हमें प्राप्त हो। आचार्य कुन्दकुन्द देव भी कहते हैं - भूवत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपाच।
षट् कमलं ति अर्थ च,जोयं संमिक दर्सनं ।। २३८॥ आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥१३॥
दर्सनं जन उत्पादंते, तत्र मिथ्या न दिस्टते। भूतार्थनय से ज्ञात जीव-अजीव और पुण्य-पाप तथा आस्रव, संवर, निर्जरा, कुन्यानं मलस्चैव,तिक्तं जोगी समाचरेत् ॥ २३९ ॥ बंध और मोक्ष,यह नव तत्व सम्यक्त्व हैं। इन नव तत्वों में शद्ध नय से देखा जाये तो
मलं विमुक्त मूढादि,पंच विसति न दिस्टते। जीव ही एक चैतन्य चमत्कार मात्र, प्रकाश रूप प्रगट हो रहा है। इसके अतिरिक्त भिन्न-भिन्न नव तत्व कुछ भी दिखाई नहीं देते। जब तक इस प्रकार जीव तत्व की
आसा स्नेह लोभं च, गारव त्रि विमुक्तयं ।। २४०॥ जानकारीजीव को नहीं है, तब तक वह व्यवहार दष्टि है. भिन्न-भिन्न नव तत्वों को है अन्वयार्थ- (दर्सनं आर्ध ऊध च) सम्यक्दर्शन होने पर अधोलोक, मानता है। जीव पुद्गल की बंध पर्याय रूप दृष्टि से यह पदार्थ भिन्न-भिन्न दिखाई ऊर्ध्वलोक और (मध्य लोकेन दिस्टते) मध्यलोक का स्वरूप देखने जानने में आने देते हैं किन्तु जब शुद्ध नय से जीव पुद्गल का निज स्वरूप भिन्न-भिन्न देखा जाये लगता है (षट् कमलं तिअर्थ च) षट्कमल के योगाभ्यास द्वारा अपने रत्नत्रय मयी
तब यह पुण्य-पापादि सात तत्व कुछ भी वस्तुनहीं हैं। वे निमित्त-नैमित्तिक भाव से स्वरूप को (जोयं संमिक दर्सनं) सम्यकदर्शन में देखने लगता है। र हुए थे इसलिये जब निमित्त-नैमित्तिक भाव मिट गया, तब जीव पुद्गल भिन्न-भिन्न 5 (दर्सनं जत्र उत्पादंते) जहां सम्यक्दर्शन पैदा हो जाता है (तत्र मिथ्या न ७ होने से अन्य कोई वस्तु (पदार्थ) सिद्ध नहीं हो सकता।
दिस्टते) वहां फिर मिथ्यात्व दिखाई नहीं देता (कुन्यानं मलस्चैव) कुज्ञान आदि। वस्तु जो द्रव्य है और द्रव्य का निज भाव द्रव्य के साथ ही रहता है तथा मलों को (तिक्तं जोगी समाचरेत्) छोड़कर योगी अपने स्वरूपकी साधना करता है। निमित्त-नैमित्तिक भाव का अभाव ही होता है इसलिये शुद्ध नय से जीव को जानने (मलं विमुक्त मूढादि) मल मूढता आदि छूटने पर (पंच विंसति न दिस्टते) से ही सम्यकदर्शन की प्राप्ति हो सकती है। जब तक भिन्न-भिन्न नव पदार्थों को फिर यह पच्चीस शंकादि दोष दिखाई नहीं देते (आसा स्नेह लोभंच) आशा स्नेह