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श्री आवकाचार जी
विशेषार्थ लोभ-पकड़ को कहते हैं। मान-अकड़ को कहते हैं । यहाँ अनन्तानुबंधी मान कषाय का वर्णन चल रहा है। बहिरात्मा संसाराशक्त जीव अधर्म में रत इन कषायों में लगा रहता है। उसे अपने शुद्ध स्वरूप शुद्धात्म तत्व की न कोई खबर है और न उसकी तरफ देखता है। वह तो शरीर आदि संयोगी पदार्थ के बनाने, मिटाने में ही लगा रहता है। लोभ झूठी पकड़ है, मान झूठी अकड़ है। यह दोनों अन्तरंग में होती हैं। इनके कारण जीव अपने शुद्धात्म तत्त्व को नहीं देखता कि इस शरीर आदि से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, मैं स्वयं तीन लोक का नाथ अनन्त चतुष्टय का धारी, परमब्रह्म परमात्मा हूँ। वह बाहरी संयोग, शरीर, धन, वैभव, परिवार, संसार, समाज आदि के प्रपंच में उलझा रहता है और इन्हीं को बनाने मिटाने, अच्छा-बुरा करने के खोटे भावों में रत रहता है । स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, राज्य, भोग, विलास में तीव्र अनुराग करता है और इन्हीं के अहंकार में अपने मन में फूला रहता है। अपने आपको बड़ा होशियार अक्लमंद मानता है। अपने सामने किसी की चलने नहीं देता। दूसरों की बढ़ती नहीं देख सकता। किसी की कोई बात नहीं सुनता। अपनी मनमानी करता है, अपने मन के खिलाफ कोई बात या कोई काम हो जाये उसी क्षण नाराज हो जाता है, अकड़ जाता है।
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मान बिल्कुल झूठा, नाशवान कृत्य है क्योंकि यह किसी का कभी रहा नहीं है । जगत की समस्त वस्तुयें क्षणिक नाशवान हैं। संसार में आना-जाना पुण्य-पाप के उदयानुसार परिणमन होना यह सब चल ही रहा है; परंतु मानी अर्थात् मान कषाय वाला जीव इन्हीं सब वस्तुओं के पीछे रौद्र ध्यान करता रहता है। एक दूसरे से बैर-विरोध, ईर्ष्या-द्वेष करता रहता है।
मान कषाय वाला हमेशा अपनी प्रसंशा और दूसरों की निन्दा आलोचना ही करता रहता है। वह न तो दूसरों की प्रशंसा करता है और न सुन सकता है ।
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अपनी मान कषाय की पूर्ति के लिये नाम बड़ाई, प्रभावना, प्रसिद्धि पाने के 5 लिये कविता, छन्द, शास्त्र आदि भी लिखता है। नाम बड़ाई के लिये झूठे-सच्चे कथानक, विषय-कषाय को बढ़ाने वाले लेख, कपट रूप धर्म के नाम पर अधर्म का पोषण करने वाली बातें, पूजा, पाठ आदि रचता है और स्वयं मिथ्या माया आदि शल्यों में लगा रहता है। स्वयं मिथ्यादृष्टि है तो उसका जितना भी कथानक है वह
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गाथा- १६१
अज्ञानमयी झूठा ही है जिसको पढ़ने से अनेक भोले जीवों का अहित होता है ।
संसार में भ्रमाने वाले वस्तु स्वरूप के विपरीत शास्त्र नहीं शस्त्र होते हैं। जो स्वयं का भी घात करते हैं और दूसरों का भी घात करते हैं। मान करना, मान का विचार करना ही दुर्बुद्धि है और बुद्धिहीन ही मान करते हैं।
मान महा दुःखरूप, करहि नीच गति जगत में । कोमल सुधा अनूप, सुख पावे प्राणी सदा ॥
संसार के सब पदार्थ नाशवान हैं, छूट जाने वाले हैं परन्तु वह इन्हें शाश्वत अविनाशी मानता है। मेरा पद बना रहे, मेरी बात बनी रहे, मेरा कुटुम्ब, परिवार, धन, वैभव बना रहे, इन्हीं विचारों में फँसा आर्त रौद्र-ध्यान करता हुआ दुर्गति में चला जाता है।
अभिमानी मानव को अपने मान प्रतिष्ठा आदि का इतना राग होता है कि फिर वह धर्म-अधर्म, हेय - ज्ञेय का कुछ विचार नहीं करता, अपनी मान की पूर्ति के लिये धन संग्रह की नाना प्रकार की योजनायें बनाता है। हिंसादि खोटे काम करने की सोचता है और बड़े उत्साह पूर्वक खोटे कामों को करता है। गृहस्थ संसारी जीव तो पापादि में लगे ही हैं और अपने नाम पद प्रतिष्ठा के लिये संघर्षरत रहते ही हैं परन्तु साधु त्यागी होने पर भी अपने नाम पद प्रतिष्ठा के लिये अपना बड़प्पन बताने के • लिये कोई बहुत कठिन तपस्या भी करते हैं और कोई बहुत शास्त्र अभ्यास करके बड़े भारी ज्ञाता पंडित हो जाते हैं तथा कोई ऊपरी आचरण शरीरिक क्रिया, पूजा, पाठ, जप, व्रत, तप साधना आदि भी करते हैं परन्तु यह सब कुज्ञान सहित होने अर्थात् मान कषाय के पोषण के लिये होने के कारण संसार में ही रुलाने वाले दुर्गति कराने वाले हैं। मैं ज्ञानी, मैं तपस्वी, मैं धर्मात्मा, मैं महात्मा त्यागी साधु योगी आदि अहं भाव मान कषाय का ही रूपक है।
मान कषाय परिणामों को कठोर बनाकर इस जन्म में भी बुरा करती है और पर लोक में नीच गति में जाना पड़ता है इसलिये ज्ञानी को क्षणभंगुर पर्याय, कर्मादि संयोग सम्बन्ध का मान न करके समभाव रखना चाहिये । आगे माया कषाय का वर्णन करते हैं
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माया अनृत रागं च, असास्वतं जल बिंदुवत् ।
धन यौवन अभ्र पटलस्य, माया बंधन किं करोति ॥ १६९ ॥