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________________ P O4 श्री श्रावकाचार जी सुद परिचिदाणुभूदा सव्वस्सवि कामभोग बंध कहा। विशेषार्थ- यहाँ संसार भ्रमण का कारण क्या है ? यह बताया जा रहा है कि एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण, सुलहो विहत्तस्स ॥४॥ जीवझूठे राग में फँसकर संसार में दु:ख का बीज बोता है। मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान । सर्वलोक को कामभोग संबंधी बंध की कथा तो सुनने में आ गई है, परिचय में , और मिथ्याचारित्र में लगा रहता है। मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र क्या है? आ गई है और अनुभव में भी आ गई है इसलिये यह सुलभ है; किन्तु भिन्न आत्मा ऐसे मिथ्याग ज्ञान वर्ण वश, भ्रमत भरत दुःख जन्म-मरण। का एकत्व होना कभी न तो सुना है,न परिचय में आया है और न अनुभव में आया है। तातें इनको तजिये सुजान, सुन तिन संक्षेप कहूँ बखान ॥ इसलिये एक मात्र वही सुलभ नहीं है। और भी आगे कहा है जीवादि प्रयोजनभूत तत्व, सर तिनमाहि विपर्ययत्व। तं एयत्त विहत्त, दाएह अप्पणो सविहवेण । चेतन को है उपयोग रूप, बिन मूरति चिन्मूरति अनूप ॥ जदिवाएज्ज पमाण, हिज्ज छलं ण घेत्तव्यं ॥५॥ पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनते न्यारी है जीव चाल। उस एकत्व विभक्त आत्मा को मैं आत्मा के निज वैभव से दिखाता हूँ , यदि मैं ताको नजान विपरीत मान, करि कर देह में निज पिछान ।। दिखाऊँ तो प्रमाण (स्वीकार) करना और यदि कहीं चूक जाऊँ तो छल ग्रहण नहीं ॐ मैं सुखी दुःखी मैं रंक राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव। करना। मेरे सुत तिय मैं सबल दीन,बेरूप सुभग मूरख प्रवीन । यहाँ यही तो समझना है कि हम चाहते क्या हैं?अगर आत्मकल्याण करना तन उपजत अपनी उपज जान,तन नशत आपको नाशमान। चाहते हैं, सुख शांति आनंद में रहना चाहते हैं तो जिसके आश्रय से वह मिलने रागादि प्रगट ये दु:ख देन, तिनहीको सेवत गिनत चैन। वाला है, उस ओर का प्रयास पुरुषार्थ करें, इसके लिये चार बातें ध्यान में रखें, शुभ अशुभ बंध के फल मंझार, रति अरति करे निजपद विसार। इनका अभ्यास करें, तो अवश्य काम बनेगा- १. आगम का सेवन, २. युक्ति का रोके न चाहनिज शक्ति खोय,शिव रूप निराकुलतानजोय।। अवलम्बन, ३. पर और अपर गुरू का उपदेश, ४. स्व संवेदन। याहीप्रतीति जत कछुक ज्ञान,सो दु:खदायक अज्ञान जान। हम क्या कर रहे हैं, इस बात को तारण स्वामी अगली गाथा में कहते हैं इन जुत विषयनि में जो प्रवृत्त, ताको जानो मिथ्या चरित्र ।। मिथ्या दर्सनं न्यानं, चरनं मिथ्या उच्यते।। इस प्रकार धर्म के विपरीत आचरण कर संसार का ही कारण बनाता है तथा अनृतं राग संपून, संसारे दुष वीर्जय ॥२१॥ र संयम तप के नाम पर मिथ्या संयम, मिथ्या तप करता है। संयम पाँच इन्द्रिय और मिथ्या संजम हदयं चिंते, मिथ्या तप ग्रहनं सदा। * मन को वश में करना तथा पाँच स्थावर और त्रस जीवों की रक्षा करना है. सोयह तो ९ करता नहीं और अपनी मनमानी से बाह्य आचरण उल्टा सीधा करता है जिससे अनंतानंत संसारे, प्रमते अनादि कालयं ॥२२॥ निराकुलता के बजाय आकुलता और विकल्प का कारण बनाता है, स्वयं परेशान - (अनृतराग सपून) झूठ रागमफसकर (ससारदुषवाजेय) संसार रहता है और दूसरों को परेशान करता है। के दुःख का बीज बो रहे हैं (मिथ्या दर्सनं न्यानं) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान (चरनं तप का वास्तविक स्वरूप-'इच्छा निरोध: तप: इच्छाओं के निरोध को मिथ्या उच्यते) और मिथ्याचारित्र को धर्म कहते हैं। 5 तप कहते हैं। तप के बारह भेद हैं-छह बाह्य तप- १. अनशन, २. उनोदर, (मिथ्या संजम हदयं चिंते) मिथ्या संयम का हृदय में चिन्तन करते हैं (मिथ्या ३. वृत्ति परिसंख्यान, ४. रसपरित्याग, ५. विविक्त सय्यासन, ६.कायक्लेश। तप ग्रहनं सदा) मिथ्या तप को सदा ग्रहण करते हैं इससे (अनंतानंत संसारे) छह अन्तरंग तप-१.प्रायश्चित, २. विनय, ३. वैयावृत्य , ४. स्वाध्याय, अनन्तानंत संसार में (भ्रमते अनादि कालय) अनादि काल से भ्रमण कर रहे हैं और ५.व्युत्सर्ग,६.ध्यान।। करते रहेंगे। 'तपसा निर्जराच'तप से कर्मों की निर्जरा होती है सो यह तो करता नहीं, reakinorrecto
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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