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04 श्री श्रावकाचार जी
गाथा-२३,२४ P Ooan अपनी मनमानी मिथ्या आडम्बर करता है,स्वयं संक्लेशित रहता है तथा दूसरों के का बन्ध होता है। लिये संक्लेश का कारण बनता है इससे अनंतानंत संसार में अनन्त काल तक विशेषार्थ-यहाँ संसार भ्रमण का मूल कारण मिथ्यात्व तो है ही उसके साथ परिभ्रमण करता है।
र अनन्तानुबंधी चार कषाय लोभ, क्रोध, मान, माया भी लगी रहती हैं. इन्हीं से यहाँ कोई प्रश्न करे कि अन्यमती में तो नाना भेष बनाते हैं और मिथ्या आडम्बर * अनन्त कर्मों का बन्ध होता है। यहाँ विशेष बात समझने की है कि पहले मोहनीय करते हैं, भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक नहीं रखते, पंचाग्नि तप करते हैं और नाना प्रकार कर्म के दो भेद बताये थे. पहले दर्शन मोहनीय जिसके तीन भेद- मिथ्यात्व, सम्यक्. का ढोंग रचते हैं, परंतु अपने यहाँ तो ऐसा कुछ नहीं करते, भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार मिथ्यात्व. सम्यक प्रकति मिथ्यात्व। दूसरे चारित्र मोहनीय के पच्चीस भेद होते हैं, रखते हैं, सही तप भी करते हैं फिर यह मिथ्या संयम मिथ्या तप क्यों कहा है? जिन्हें कषाय कहते हैं। कषाय चार होती हैं- क्रोध, मान, माया, लोभ इनकी
उसका समाधान करते हैं कि पहली बात तो यह है कि सम्यक्त्व से हीन । तीव्रता मंदता के चार भेद हैं, अनन्तानुबंधी,अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन अर्थात अपनी आत्मश्रद्धा से रहित जो भी संयम तप है वह सब मिथ्या संयम, ४४४१६. नौ नो कषाय होती हैं- हास्य,रति, अरति, भय, शोक, मिथ्यातप ही है क्योंकि वह सब संसार के ही कारण हैं, भले ही ऐसे संयम तप से जुगुप्सा,स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद, यह सब पच्चीस हैं। अब इन पच्चीस कषायों पुण्य बन्ध होवे सद्गति होवे, देवगति चला जावे पर उससे लाभ क्या है? ऐसेतो- 3 को दो भेदों में बाँटा है, जिन्हें राग-द्वेष कहते हैं। राग के अंतर्गत तेरह कषाय आती मुनि व्रत धार अनन्त बार ग्रीवक उपजायो।
हैं,माया और लोभ की चौकडी तथा हास्य,रति और तीनों वेद । द्वेष के अंतर्गत बारह पनिज आतमज्ञान बिना,सखलेशन पायो॥
कषाय क्रोध और मान की चौकड़ी तथा अरति,भय,शोक,जगप्सा। अब यहाँ समझने दूसरी बात मन और इन्द्रियों के वश करने को संयम कहते हैं सो यह मन और का विषय है कि मिथ्यात्व के साथ यह अनन्तानुबंधी चार कषाय हमेशा रहती ही हैं। इन्द्रिय तो वश में करता नहीं और खाने-पीने की शुद्धि, बाह्य आडम्बर करता है,
जो जीव को कमाँ से कसे बांधे उसे कषाय कहते हैं। इन्हीं को संयम कहता है तथा तप, इच्छा के निरोध करने को कहते हैं. सो इच्छा
अब विशेष बात जो हमेशा स्मरण रखना हैका निरोध तो करता नहीं और तप के नाम पर नाना प्रकार के फैलाव फैलाता है।
१. संसार में जीव को दु:खी करने वाला-मोह है। वैसे प्रतिदिन सामान्य भोजन करता है, परंतु व्रत के दिन नाना प्रकार के व्यंजन
२.संसार में जीव को रुलाने वाला भ्रमण कराने वाला-मिथ्यात्व है। बनाता है। जबकि संयम तप करने वाले को तो सहज, सरल,आकिंचन्य निस्पृह ३.संसार में जीव को कर्म बन्ध का कारण-कषाय या राग-द्वेष है। होना चाहिये,जो कुछ जैसा अपने नियम के अनुकूल मिल जाये उसमें ही सन्तोष
तीन मिथ्यात्व और चार अनन्तानुबंधी कषाय के छूटने पर ही जीव को अपने और तृप्त रहना चाहिये परन्तु वर्तमान में क्या हो रहा है, यह सब देख ही रहे हैं, इस स्वरूप का भान, सम्यक्दर्शन होता है, जब तक यह नहीं टूटती-छूटती तब तक प्रकार यह मिथ्या संयम, मिथ्या तप में लगा जीव संसार भ्रमण ही करता है। अब जीव को संसार में ही भ्रमण करना पड़ेगा। मिथ्यात्व के साथ चार अनन्तानुबंधी कषायों में लगे रहने से अनन्त कर्मों का अनुबन्ध
अब आगे चार कषायों में पहले लोभ का स्वरूप कहते हैंकरता है, उसका स्वरूप कहते हैं
लोभं कृतं असत्यस्या,असास्वतं दिस्टते सदा। मिथ्या दिस्टिच संगेन, कसायं रमते सदा।
अनृतं कृत आनंद, अधर्म संसार भाजनं ॥ २४ ॥ लोभं क्रोध मयं मान,गृहितं अनंत बंधनं ॥२३॥
अन्वयार्थ- (लोभं कृतं असत्यस्या) लोभ करना बिल्कुल झूठा है, अधर्म है अन्वयार्थ- (मिथ्या दिस्टि च संगेन) मिथ्यात्वमय दृष्टि के संग से (कसायं (असास्वतं दिस्टते सदा) लोभ करने वाला हमेशा क्षणभंगुर, नाशवान पदार्थों को रमते सदा) कषायों में हमेशा रमण करता है (लोभं क्रोधं मयं मानं) लोभ, क्रोध, ही देखता है (अनृतं कृत आनंद) और इन्हीं सब नाशवान पदार्थों को इकठ्ठा करने, माया, मान के (गृहितं अनंत बंधनं) अनन्तानुबंधी बंधन में लगे रहने से अनन्त कर्मों .
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