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GYANCY
श्री आवकाचार जी
बनवाने में आनंद मानता है (अधर्म संसार भाजनं) यही अधर्म, पाप, संसार का पात्र बनाता है।
विशेषार्थ यहाँ चार कषायों में पहले लोभ कषाय का वर्णन चल रहा है। कषाय करने वाला कैसा होता है उसका एक सूत्र है
क्रोधी अन्धा होता है, मानी बहरा होता है। लोभी नकटा होता है, मायाचारी गूंगा होता है ॥
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पापों की माँ- माया और पापों का बाप लोभ होता है। लोभ तृष्णा को कहते हैं, संग्रह करने की वृत्ति लोभ है। मानसिक अशान्ति, चिन्ता, भय और दुःख का
कारण लोभ है। लोभ करने वाले को किसी से प्रेम स्नेह नहीं होता। लोभ का मूल आधार धन, वैभव, परिग्रह है। लोभी को हित-अहित, पाप-पुण्य का कोई विचार, विवेक नहीं होता। धन संग्रह करना ही उसका एक मात्र लक्ष्य होता है। लोभ के कारण ही परिवार में कलह अशान्ति होती है। अनीति अन्याय, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी सब धन और लोभ के कारण होती है। लोभी न खाता है, न सोता है, हमेशा भयभीत रहता है। लोभी कभी व्रत धारण नहीं कर सकता। क्रोध और मान तो बाहर से दिखाई देते हैं, पकड़ में आ जाते हैं, परन्तु लोभ और माया बाहर से दिखाई नहीं देते, सहजता से पकड़ में नहीं आते। नरक में ले जाने का एक मात्र कारण लोभ ही है। बाहर में धन-वैभव परिग्रह होवे न होवे, यह पाप-पुण्य के उदयाधीन है, पर लोभ की प्रवृत्ति, लोभ कषाय तो अन्तरंग परिणति है जो भीतर ही भीतर काम करती रहती है, लोभी को किसी का विश्वास नहीं होता । पुत्र, पत्नि, भाई तक का विश्वास नहीं करता। धन की बहुत पकड़ होती है। लोभी को निरन्तर रौद्र ध्यान चलता रहता है। लोभी को बाहरी फैलाव धन-वैभव, परिग्रह ही दिखता है और इनके इकट्ठा करने, होने में ही आनंद मानता है। उसे अपने सत्स्वरूप आत्मा की तो कोई खबर ही नहीं होती, अधर्म में पापो में लगा हुआ संसार का पात्र बनता है।
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यहाँ कोई प्रश्न करे कि कषायों में तो क्रोध, मान, माया, लोभ का क्रम है, यहाँ तारण स्वामी ने लोभ को पहले क्यों रखा ?
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उसका समाधान है कि यहाँ तारण स्वामी ने जीव की परिणति और कषाय के मूल आधार को पकड़ा है; क्योंकि लोभ से ही क्रोध, मान, माया होते हैं और यह जीव के साथ दसवें गुणस्थान तक रहता है, लोभ ही पाप का बाप, पापों की जड़ है,
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गाथा २५
लोभ से ही संसार का सब चक्र चलता है। लोभ का प्राण धन है और यही संसार का प्राण है। धन और धर्म की अत्यन्त विपरीतता है, जिसे धन इष्ट और प्रिय होगा, उसे धर्म उपलब्ध हो ही नहीं सकता। पुण्य-पाप की जड़ धन है, धर्म से तो इसका कोई संबंध है ही नहीं, धर्म मार्ग का सबसे बड़ा बाधक कारण धन है। जिन्हें धर्म मार्ग पर चलना था, मुक्त होना था, उन्होंने इस पाप-परिग्रह का त्याग किया तभी मुक्त हो सके। बड़े-बड़े राजा, महाराजा, तीर्थंकर, चक्रवर्ती इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। आगे लोभ से ही क्रोध होता है, और वह आत्मा धर्म रत्न को जलाता है, इसका वर्णन करते हैं
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कोहाग्नि प्रजुलते जीवा, मिध्यातं घृत तेलयं ।
कोहाग्नि प्रकोपनं कृत्वा, धर्म रत्नं च दग्धये ।। २५ ।।
अन्वयार्थ (कोहाग्नि प्रजुलते जीवा) जब जीव क्रोध की अग्नि में जलता है (मिथ्यातं घृत तेलयं) मिथ्यात्व, घी और तेल का काम करता है (कोहाग्नि प्रकोपनं कृत्वा) इससे क्रोधाग्नि बहुत बढ़ जाती है, उसका प्रकोप अति प्रबल हो जाता है (धर्म रत्नं च दग्धये) जिससे धर्म रत्न भस्म हो जाता है ।
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विशेषार्थ यहाँ संसार भ्रमण के कारण मिथ्यात्व के साथ अनन्तानुबंधी कषाय का वर्णन चल रहा है, यहाँ क्रोध का स्वरूप बताया जा रहा है कि जब जीव को अनन्तानुबंधी क्रोध उत्पन्न होता है तो उसमें मिथ्यात्व घी और तेल का काम करता है, इस क्रोधाग्नि में जीव अन्धा हो जाता है, फिर उसे अपने-पराये का, अच्छे-बुरे का कोई होश नहीं रहता। क्रोध की तीव्रता में बड़ा अनर्थ कर डालता है, परघात, अपघात तक की स्थिति बन जाती है। मिथ्यात्व सहित अनन्तानुबंधी क्रोध का उदाहरण द्वीपायन मुनि थे, जिन्होंने पूरी द्वारिका को और स्वयं को भी उसी में भस्म कर दिया। क्रोधी जीव को हानि-लाभ का, भले-बुरे का छोटे-बड़े का, घर-बाहर का कोई होश नहीं रहता। क्रोध के आवेश में जीव क्या से क्या नहीं कर डालता, यह प्रत्यक्ष संसार में देखने में आता है, अपना क्या होगा, इसका तो उसे होश ही नहीं रहता।
क्षमा धर्म का नाश करने वाला क्रोध ही है। क्रोध का मूल आधार बुरा लगना है। अपनी मनचाही बात न होने से क्रोध आता है, कोई इच्छानुसार न चले तो क्रोध आता है, कोई नुकसान हो जाये कोई अपमान कर दे तो एकदम