________________
w o श्री आचकाचार जी
गाथा-२० C o A लिया, वह जैन है। व्यवहार में जिसने इन्द्रियों को जीत लिया,वह जैन है। हमारे तो इसमें जीव क्या करे?
आचरण क्या हैं, यह स्वयं देखें तथा वीतरागी देव, गुरू, धर्म का योग मिला, पर इसका समाधान करते हैं कि यह अनादि से तो लगे हैं परंतु अब तुम्हें यह हमारी मान्यता और श्रद्धा क्या है, तथा हम क्या हैं? जरा स्वयं को देखें। ऊपर से , मनुष्य भव और विवेक बुद्धि मिली है, अब तुम वस्तु स्वरूप को समझो, भेदज्ञान बाहर से पुण्य के उदय से सब शुभ योग मिले और ऐसे कई बार मिले होंगे; परन्तु करो, अपने सत्स्वरूप को पहिचानो तो इन सब झंझटों से छूट जाओगे और क्या हमने सच्चे देव, गुरू, धर्म के स्वरूप को समझकर कभी सच्ची श्रद्धा की है? आनंदमय मुक्त हो जाओगे। जैसे अन्य, अपने देव गुरू धर्म की श्रद्धा भक्ति करते हैं, वैसे ही हम भी करते हैं, तो परन्तु अज्ञानी प्राणी क्या करता है? वह वस्तु स्वरूप का विचार चिन्तन तो क्या भेद हुआ? क्योंकि हमारी मान्यता, श्रद्धान ही उल्टा विपरीत है, तो क्या नहीं करता और उल्टा चिन्तन करता है। कैसा क्या करता है? इस बात को आगे होगा? यहाँ तो कहते हैं कि सच्चे देव गुरू धर्म का एक बार भी सत्संग हो जाये तो , गाथा में कहते हैंबेड़ा पार हो जाये, कहा है
अनूतं विनासी चिंते, असत्यं उत्साहं कृतं । जिन वयन उवएस, केई पुरिसस्य मनिरयन वित्थरनं ।
अन्यानी मिथ्या सद्भावं, सुद्ध बुद्धं न चिंतए॥२०॥ मनुवा पंषि अनेयं, चंचु आक्रिनि लेवि सं उडियं ॥
अन्वयार्थ- (अनृतं विनासी चिंते) अशाश्वत और विनाशीक संयोग का उपदेशसुद्धसार गाथा-४ जिनेन्द्र भगवान के वचन रूप उपदेशरत्न को मणिरत्न की भाँति कोई विरले
5 चिन्तवन करता है (असत्यं उत्साहं कृतं) असत्य झूठी बातों और झूठी क्रिया में पुरुष विस्तार को प्राप्त कर पाते हैं। भगवान के समवशरण में मनुष्य रूपी पक्षी तो
बड़ा उत्साह करता, उत्साहित रहता है (अन्यानी मिथ्या सद्भाव) अज्ञानी इन्हीं अनेक होते हैं किन्तु कोई विरले भव्य जीव जिनेन्द्र भगवान के वचनोपदेश रूपी. झूठे कार्यों में, भावों में लगा रहता है (सुद्धबुद्धं न चिंतए) अपने शुद्ध-बुद्ध, अविनाशी मणिरत्न को कर्णरूपी चोंच में लेकर उड़ जाते हैं अर्थात् जो जीव भगवान की वाणी शुद्धामस्वरूप का चिन्तवन नहीं करता। को ग्रहण कर लेते हैं यही सत्संग की सार्थकता है।
विशेषार्थ- यहाँ जीव के संसार भ्रमण का क्या कारण है ? यह प्रश्न पूछे जाने सत्संग उसे कहते हैं, जब हमारी दृष्टि पलट जाये, अपने ब्रह्म स्वरूप की सुरत पर सद्गुरू तारण स्वामी उसका विवेचन कर रहे हैं कि मूल कारण तो मिथ्यात्व है, हो जाये और संसार से विरक्तता आ जाये, यह है सत्संग की महिमा । सत्य की। इसके साथ संसार शरीर भोगों में रंजायमान होना, मिथ्या देव, गुरू, धर्म का सेवन स्वीकारता, सत्य की श्रद्धा ही सच्चे देव गुरू धर्म का मिलना है और यह अभी तक करना, मिथ्या माया मेंमोहित रहना और क्षणभंगुर नाशवान शरीरादि अचेतन पदार्थों इस जीव को हुआ नहीं है तथा मिथ्या माया में मोहित हो रहा है। माया के तीन रूप में राग करना । यहाँ इसी बात को खुलासा कर रहे हैं कि जीव इन सबमें लगा है हैं- कंचन, कामिनी और कीर्ति। इनके चक्कर में संसारी प्राणी भ्रमित हो रहा है, तथा इन्हीं अशाश्वत, विनाशीक पदार्थों का चिन्तवन करता है, इन्हीं के झूठे और यह सब झूठी मन की भ्रमना छल है। न यह कुछ साथ आती है और न साथ प्रपंचों में अति उत्साहित रहता है तथा इन्हीं की चर्चा और इन्हीं के भाव करने में जाती है और न इससे किसी का भला होता है, मात्र छल धोखा है जिसमें अज्ञानी लगा रहता है। अपने शुद्ध-बुद्ध, अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा का तो प्राणी मोहित हो रहा है और इसकी चाह में व्याकुल हो रहा है। यह माया ही इस जीव चिन्तवन करता ही नहीं है। को मोहित किये हुए है, यही अपने ब्रह्म स्वरूप का साक्षात्कार नहीं होने दे रही है।
यहाँ कोई प्रश्न करे कि जब अपने शुद्ध-बुद्ध अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान यह जीव क्षणभंगुर नाशवान शरीरादि अचेतन पदार्थों में राग कर रहा है, इससे
आत्मा का ही पता नहीं है, कभी उसे जाना नहीं, अनुभव नहीं किया तो उसका अनादि से संसार में भ्रमण कर रहा है।
चिन्तवन कैसे करें? जो जानने में आया जिससे संबंध है, उसी का चिन्तन ) यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह अनादि से ही मिथ्यात्व माया, मोह आदि लगे हैं,
चलता है वैसे ही भाव होते हैं, इसमें कोई क्या करे? इसका समाधान समयसार चलता जी में आया है