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________________ ७७७ श्री आवकाचार जी लगते हैं, उनका भी वह त्याग कर देता है; इसलिये जैसे- बड़, पीपल आदि फलों को त्रस जीवों की रक्षार्थ त्यागा जाता है, वैसे ही और फलों को जिनमें कीड़ों के पैदा होने की संभावना है उनको भी नहीं खाना चाहिये, इनमें भी त्रस जीव पैदा हो जाते हैं तथा हर फल को जो सूखे बादाम सुपारी इलायची- छुहारा आदि या बहुत दिन के रखे फल हों, इनको तोड़कर व भले प्रकार देखकर ही खाना चाहिये, साबुत फल कभी कोई सा नहीं खाना चाहिये; क्योंकि गर्मी, सर्दी बरसात आदि के निमित्त से हर फल में स जीवों का पैदा होना संभव है। कुछ फलों को तोड़ने पर अन्दर कीड़े चलते हए दिखाई देते हैं इसलिये इनके अतिचारों (दोषों) से बचने के लिये प्रत्येक सद्गृहस्थ श्रावक को इनका सेवन नहीं करना चाहिये। फलों के साथ अन्न आदि बीज में, फल फूल में भी संमूर्च्छन त्रस आदि जीवों की उत्पत्ति होती है। जीव रक्षा, अहिंसा और दयाभाव पालने के लिये इनका भी विवेकपूर्वक सेवन करना चाहिये। इसी बात को श्री गुरू आगे की गाथा में कहते हैं अन्नं जथा फलं पुहपं, बीजं संमूर्छनं जथा । तथाहि दोष तिक्तंते, अनेव उत्पाद्यते जथा ।। २२७ ।। अन्वयार्थ - (अन्नं जथा फलं पुहपं) इसी तरह से अन्नादि जो घुन गया हो, फल-फूल (बीजं संमूर्छनं जथा) बीज, साग, पत्ती आदि (तथाहि दोष तिक्तंते) वैसा ही दोष देखकर छोड़ देना चाहिये (अनेय उत्पाद्यते जथा) जहाँ इस प्रकार के अनेक त्रस जीवों की उत्पत्ति हो । SYASA YA YES A F विशेषार्थ अन्न जो पुराना हो, घुन गया हो, काली फुल्ली पड़ गई हो, वह भी जीवों का स्थान जानकर त्याग देना चाहिये। फल-जो सड़ गया हो, , उसमें त्रस जीवों की उत्पत्ति हो जाती है, ऐसा जानकर नहीं खाना चाहिये। फूलों में भी त्रस जीव स्पष्ट दिखाई देते हैं, जो उनके अन्दर रहते हैं- ऐसे फूलों तथा फूलगोभी आदि को नहीं खाना चाहिये । साग, पत्ती आदि जिसमें त्रस जीवों के बैठने रहने की संभावना हो, नहीं खाना चाहिये तथा और चीजें जिनमें त्रस जीवों की उत्पत्ति की संभावना हो, 5 जैसे- जिनका स्वाद विचलित हो गया हो, स्वाद रहित रस आदि जो बाईस अभक्ष्य के अन्तर्गत आते हैं, इनको भी अव्रत सम्यदृष्टि त्याग देता है, तभी वह पंच उदम्बर फल का सच्चा त्यागी होता है। अजान फलों को भी बिना जाने नहीं खाना चाहिये, जिसमें त्रस जीवों की रक्षा हो वह कार्य करना चाहिये। दयावान अव्रती श्रावक अपने १५० गाथा-२२७,२२८ C जीवन के समान ही अन्य पंचेन्द्रिय जीवों को भी समझता है। जब कोई प्राणी अपना मरण नहीं चाहता है, तो हमारा भी कर्तव्य है कि उनके प्राणों की रक्षा करते हुए हम अपना खान-पान आदि आचरण शुद्ध रखें। जघन्य पात्र अव्रत सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा की अठारह क्रियाओं में पहली सम्यक्त्व, इसके बाद आठ मूलगुण जिसमें पांच उदम्बर का वर्णन किया, श्री गुरुदेव आगे तीन मकार में मद्य के स्वरूप का वर्णन करते हैंमद्यं च मान संबंधं ममतं राग पूरितं । - असुद्ध आलापं वाक्यं, मद्य दोष संगीयते ॥ २२८ ॥ " अन्वयार्थ - (मद्यं च मान संबंधं) शराब और मान का सम्बंध (ममतं राग पूरितं ) ममता के राग से पूरित कर देता है (असुद्धं आलापं वाक्यं) अशुद्ध वचन बोलना, व्यर्थ बकवाद करना (मद्य दोष संगीयते ) यह सब मदिरा शराब के दोष कहे जाते हैं। विशेषार्थ - तीन मकार में मद्य, मांस, मधु आते हैं। जिसमें यह मद्य का त्याग करना पहला मकार है। मद्य मदिरा, शराब पीने को कहते हैं, जो सड़ी गली गन्दी वस्तुओं से बनाई जाती है। जिसके पीने से मनुष्य उन्मत्त मदहोश हो जाता है फिर उसे अपनी और पर की कोई खबर नहीं रहती, वह अनर्गल प्रलाप एवं नाना प्रकार के क्रिया कलाप करता है, तो ऐसी शराब पीने का त्याग अव्रत सम्यक्दृष्टि कर देता है। यहां कोई प्रश्न करता है कि ऐसे गंदे पदार्थों का मद्य, मांस, मधु का सेवन तो हम भी नहीं करते, उच्च कुल वाले तो इन वस्तुओं का सेवन करते ही नहीं हैं, सामान्य मनुष्य भी इनका सेवन नहीं करता, इनका सेवन तो नीच लोग करते हैं, यह तो सबको ही त्याज्य हैं, फिर इसमें सम्यदृष्टि की क्या विशेषता है ? तारण स्वामी इसी बात को लेकर सम्यकदृष्टि की विशेषता बता रहे हैं कि जैसे- शराब पीने वाला नशे में उन्मत्त हो जाता है, उसे कोई होश नहीं रहता क्योंकि मोह और मान से पूरित राग युक्त व्यक्ति को भी कोई होश नहीं रहता है, वह भी झूठ-सच बोलता है, अपने मान के अंहकार में फूला रहता है। इस मद के आठ भेद बताए हैं- कुल मद, जाति मद, धन मद, रुप मद, बल मद, ज्ञान मद, तप मद, और ऋद्धिमद या अधिकार मद। इनमें फूला मोह और राग में लिप्त मनुष्य को फिर कुछ सूझता नहीं है । चाहे जिसका अपमान कर देना, चाहे जिससे चाहे जो कुछ कह
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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