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04 श्री आपकाचार जी
गाथा-२२५,२२६ SCOO लिये छटपटाहट- ललक,लगन होवे तो सहज में आत्मानुभूति हो सकती है। जो महान हिंसा,पाप बन्ध का कारण है। पहले लोग कहते थे- कहावत थी कि ऊपरी मन समझाने या पर को बताने की अपेक्षा चर्चा करें तो इससे कोई लाभ नहीं ऊमर फोड़ो न पखाउड़ाओ अर्थात् ऊमर के फल को मत फोड़ो उसमें चार इन्द्रिय है। एक बात और है कि इसमें मन का चक्कर बहुत बाधक है। यह पहले तो अपने , उड़ने वाले असंख्यात जीव होते हैं। इसी प्रकार इन फलों में दो इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय स्वरूप को देखने ही नहीं देता, संसार,शरीर,भोगों में भ्रमाता रहता है, जो इनसे 8 तक के असंख्यात जीव होते हैं,जो इनका सेवन करने पर मर जाते हैं तथा इनसे ७ बचकर छूटकर अपने स्वरूप में आता है तो यह वहाँ भी संशय, विभ्रम पैदा करता कई रोग भी पैदा होते हैं, जो बड़े खतरनाक होते हैं। जिसका विवेक जाग्रत होजाता . है; क्योंकि स्वरूपानुभूति निर्विकल्प दशा तो एक समय की होती है, उसके बाद है वह फिर इनका कभी भी सेवन नहीं करता। विला जाती है तो यह यहाँ भी भ्रमाता है कि अभी सम्यक्दर्शन नहीं हुआ, जिसे बड़,पीपल, ऊमर ,गूलर और अंजीर इन पाँच वृक्षों के हरे फल या सूखे फल जो सम्यक्दर्शन होता है, वह ऐसा होता है, ऐसा करता है आदि नाना प्रकार की जो खाता है वह राग भाव की अधिकता से अनेक त्रस जंतुओं का घात करने वाला है। चर्चायें सुन रखी हैं उन्हें बीच में लाकर खड़ी करता है, तो ऐसे में भी बहुत मुश्किल सम्यक्दृष्टि विवेकी हो जाता है। वह खान-पान ऐसा रखता है जिससे शरीर स्वस्थ पड़ता है। यहाँ तारण स्वामी इसलिये सभी अपेक्षाओं से अपना निर्णय करा रहे हैं रहे,धर्म ध्यान में बाधा नपड़े तथा त्रस- स्थावर दोनों प्रकार के प्राणियों की हिंसा से कि यह बात पहले पक्की कर लो, तो आगे सब सहज में सधेगा, वरना बड़ा मुश्किल बचा जा सके। वह जिह्वा का लम्पटी नहीं रहता है इसलिये जिन फलों में प्रत्यक्ष कीडे होगा विकल्प खड़े होंगे।
उडते दिखते हैं अथवा कीडों की उत्पत्ति की बहुत संभावना है उन वस्तुओं को अपने सम्यकदर्शन, शबात्म स्वरूप का निर्णय तो अपने को स्वयं करना दयावान सम्यकद्रष्टि नहीं खाता है। ऐसे अनेक फल हैं जिनमें त्रस जीव होते हैं. है और वह स्वयं से ही स्वयं में होता है, इसे न पर जानता है,न इससे पर का उनमें यहाँ पाँच प्रमुख गिनाये गये हैं. इसी तरह के और भी जो फल हों, जिनमें त्रस कोई संबंध ही है.स्वयं का निर्णय करें तो सब सहजता से हो सकता है। जीव पाये जावें या उनके होने की संभावना हो- उनको दयावान सम्यक्दृष्टि नहीं
आगे अव्रत सम्यक्दृष्टि जघन्य पात्र अन्तरात्मा की अठारह क्रियाओं में आठ खाता। शुद्ध आहार शरीर और मन दोनों का रक्षक है। मूलगुण का उनके स्वरूप सहित वर्णन करते हैं
इसी बात को गुरुदेव अगली गाथा में कहते हैं - मूलगुनं च उत्पादंते, फलं पंच न दिस्टते।
फलानि पंच तिक्तंति,त्रसस्य रव्यनार्थयं । बड़पीपल पिलषुनीच, पाकर उदंबरस्तथा ॥ २२५॥
अतीचार उत्पादंते, तस्य दोष निरोधनं ।। २२६ ॥ अन्वयार्थ- (मूलगुनं च उत्पादंते) जो मूलगुण का पालन करता है (फलं पंच अन्वयार्थ- (फलानि पंच तिक्तंति) सम्यक्दृष्टि इन पाँच फलों को तो छोड़ न दिस्टते) वह पाँच प्रकार के फलों को देखता ही नहीं है (बड़ पीपल पिलषुनी च) ही देता है (त्रसस्य रष्यनार्थयं) त्रस जीवों की रक्षा के लिये कभी इनका सेवन नहीं बड़ के फल, पीपल के फल,ऊमर,कठूमर के फल और (पाकर उदंबरस्तथा) पाकर 8 करता तथा (अतीचार उत्पादंते) जिन फलों के सेवन से अतिचार पैदा होते हैं, वैसा अर्थात् अंजीर के फल यह उदम्बर फल हैं।
१ दोष लगता है (तस्य दोष निरोधन) उन दोषों का निरोध करने के लिये ऐसे फलों का विशेषार्थ- पहले लोग जंगली चीजों का, जंगली फलों का ज्यादा उपयोग खाना भी बन्द कर देता है, छोड़ देता है। करते थे, खाते थे। जिनमें यह शराब पीना, मांस खाना, शहद खाना, बड़ के विशेषार्थ- अष्ट मूलगुणों में पंच उदम्बर तीन मकार कहे जाते हैं, तो अव्रत फल,पीपल के फल,ऊमर के फल, अंजीर के फल तथा गूलर के फल जो विशेषता सम्यक्दृष्टि इन पाँच फलों को खाना तो छोड़ ही देता है क्योंकि उसको त्रस जीवों की से होते थे इनका सेवन करते थे। इन चीजों के सेवन करने खाने से त्रस जीव-दो रक्षा की भावना रूप दयाभाव प्रगट हो गया है तथा और ऐसे अन्य फल जिनमें त्रस, इन्द्रिय से लेकर पाँच इन्द्रिय तक के जीव जो इनमें होते थे, सबका घात होता था। जीवों की उत्पत्ति की संभावना होती है या जिनके सेवन करने से अतीचार,वैसे दोष
hehriUtaas.
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