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________________ * Ouी आपकाचार जी गाथा-२२९-२३१ C am देना, अपनी अकड़ में रहना, अपने आपको होशियार और सबको मूर्ख मानना. आगे मांसभक्षण का त्याग सम्बंधी स्वरूप कहते हैंअपने कार्य, अपनी बात को श्रेष्ठ मानना और सबको दोष लगाना, अपनी प्रशंसा मासं भष्यते जेन, लोनी मुहूर्त गतस्तथा । करना,दूसरों की निन्दा करना,किसी का बढ़ना सहन न होना,इन बातों का त्याग नभुक्तं न उक्तंच, व्यापार न चक्रीयते ॥ २३०॥ होने पर ही वास्तविक मद्य त्याग है। अव्रत सम्यक्दृष्टि इन बातों का भी विवेक रखता है क्योंकि क्रोध और मान का तीव्र प्रकोप हो, वह सम्यकद्रष्टि हो ही नहीं दो दारिया मही दुग्धं, जे नर भुक्त भोजनं । सकता क्योंकि जहां पर वस्तु में अहंपना है वहां आत्मानुभूति कैसे होगी; इसलिये स्वादं विचलिते जेन, भुक्तं मांस दोषनं ॥२३१॥ अव्रत सम्यक्दृष्टि इन बातों का भी ध्यान रखता है और इनको छोड़कर ही अपने अन्वयार्थ- (मासं भष्यते जेन) जो मांस का भक्षण करते हैं, खाते हैं वह तो सत्स्वरूप की साधना करता है। है हिंसक पापी ही हैं परन्तु जो मांस भक्षण के त्यागी हैं उन्हें (लोनी मुहूर्त गतस्तथा) आगे इसकी और विशेषता बताई जा रही है - एक मुहूर्त के बाद का मक्खन भी नहीं खाना चाहिये क्योंकि उसमें सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय संधानं संमूर्छनं जेन, तिक्तति जे विचयनं । जीवों की उत्पत्ति हो जाती है इसलिये (न भुक्तं न उक्तंच) न स्वयं खाना चाहिये अनंत भाव दोषेन, न करोति सुद्ध दिस्टितं ॥ २२९ ॥ 2 और न ही किसी से खाने को कहना चाहिये (व्यापारं न च क्रीयते) और न इसका अन्वयार्थ- (संधानं संमूर्छनं जेन) संधान-रसदार, रसभरी वस्तुजैसे- मुरब्बा, 5 व्यापार ही करना चाहिये। अचार, शीरा आदि जिसमें संमूर्छन जीवों की उत्पत्ति विशेषता से हो जाती है (दो दारिया मही दुग्धं) दो दाल वाली वस्तुमही में या दूध में डालकर भी नहीं (तिक्तंति जे विचष्यन) जो ज्ञानवान विलक्षण पुरुष हैं, वह इसे भी छोड़ देते हैं है. र खाना चाहिये तथा (स्वादं विचलितेजेन) जिन चीजों का स्वाद बिगड़ गया हो उनको (अनंत भाव दोषेन) गन्दे अश्लील दोष युक्त भाव जो अनन्त प्रकार के होते हैं । MS भी नहीं खाना चाहिये (जे नरा भुक्त भोजन) जो मनुष्य इन वस्तुओं का उपयोग 5 करते खाते हैं (भुक्तं मांस दोषनं) इनके खाने से मांस का दोष लगता है। (न करोति सुद्ध दिस्टितं) शुद्ध दृष्टि ऐसे भाव भी नहीं करता है। विशेषार्थ- मद्य त्याग करने वाले की और विशेषता बताई जा रही है कि जो 3 विशेषार्थ- यहाँ तीन मकार में दूसरा मांस खाने का त्याग करना आठ मूलगुणों के अंतर्गत बताया जा रहा है, तो जो मांस भक्षण करते हैं वह तो हिंसक पापी हैं शराब तो नहीं पीता पर ऐसी वस्तुएं जिनमें संमूर्च्छन जीवों की विशेष उत्पत्ति होती है, जैसे मुरब्बा-अचार, शीरा आदि जिनमें फफूंद पड़ जाती है। अचार आदि में तो है परन्तु जो इसका त्याग कर देते हैं पर यदि एक मुहूर्त के बाद अर्थात् ४८ मिनिट के बाद का मक्खन खाते हैं तो वह मांस भक्षण के दोषी हैं क्योंकि एक मुहर्त के बाद त्रस जीव भी चलते-फिरते दिखाई देने लगते हैं इसलिये विवेकी पुरुष इनका भी ! त्याग कर देता है तथा ऐसे दोष युक्त भाव जो अनन्त प्रकार के होते हैं, नहीं करता S मक्खन में वैसे ही संमूर्छन पंचेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होने लगती है इसलिये ४८ क्योंकि वह जानता है कि जैसे परिणाम होंगे वैसे ही कर्मों का बंध होगा इसलिये वह एमिनिट के पहले मक्खन को गरमकर छानकर घी बना लेना चाहिये। इस बात से भी सतर्क रहता है। जिन वस्तुओं के सेवन करने से त्रस जीवों का घात हो ऐसी वस्तुओं को न तो जिस वस्तु में रस के सम्बन्धी अनन्त जंतु उत्पन्न हो जावें, उन सबको संधान स्वयं खाना चाहिये न किसी से खाने को कहना चाहिये तथा न ऐसी वस्तुओं का कहते हैं। सम्यक्दृष्टि जीव जिह्वा का लम्पटी नहीं होता इसलिये वह विवेक पूर्वक ही व्यापार करना चाहिये क्योंकि कृत, कारित, अनुमोदना से भी उसी दोष के भागी होते। खान-पान रखता है। शुद्ध भोजन करने से परिणाम निर्मल रहते हैं, आलस्य नहीं हैं। पहले के जैन श्रावक शहद मक्खन तथा अन्य ऐसी वस्तुएं जिनमें त्रस जीवों का र 6 सताता, रोग नहीं होते हैं। अनन्तानुबंधी कषाय, अन्याय अभक्ष्य की ओर प्रेरित घात होता हो उनका व्यापार भी नहीं करते थे। दो दालों वाली वस्तु अनाज-मेवा करती है, सम्यकदृष्टि के ऐसी कषाय की भावना नहीं होती है, इससे वह विचार आदि भी मही-दही, दूध में मिलाकर नहीं खाना चाहिये क्योंकि इनको मिलाकर खाने से मुँह में जाते ही सम्मूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। पूर्वक आचरण करता है। १५१
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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