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श्री श्रावकाचार जी
गाथा-१८३,१८४ n ou आत्म सद्भाव आरक्तं, पर द्रव्यं न चिंतये ।
तत्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं, यह सब जड़ पुद्गल
अचेतन हैं। मैं ज्ञान स्वभावी चैतन्य तत्व हूँ ऐसी सत्श्रद्धा होने से अन्तरात्मा हुआ न्यान मयो न्यान पिंडस्य, चेतयंति सदा बुधैः ।। १८४॥
. और अब इन संसारी प्रपंच जन्म-मरण के चक्र, संकल्प-विकल्प के जाल से छूटने अन्वयाथ- (पिडस्त न्यानपिडस्य) ज्ञान कापड आत्मा का ध्यान करना के लिये अपने ज्ञानानंद स्वभाव में रहने के लिये इन कर्मों से छूटने मुक्त होने के लिये पिंडस्थ ध्यान है (स्वात्मचिंता सदा बुधैः) हे ज्ञानी साधक! हमेशा अपने आत्मा सत्परुषार्थ करता है। उसका पहला उपाय है भेदज्ञान का अभ्यास और धर्म ध्यान का चिन्तवन करो (निरोधनं असत्य भावस्य) इससे असत्य भावों का निरोध होता की साधना। है अर्थात् शुभाशुभ भाव पैदा ही नहीं होते (उत्पाद्यं सास्वतं पदं) शाश्वत पद अपना वर्तमान में कर्म संयोग, मोह-राग का सद्भाव होने से तीव्र पुरुषार्थ काम नहीं ध्रुव स्वभाव प्रगट होता है।
हैं करता फिर भी ज्ञानी पुरुषार्थ हीन नहीं है इसलिये जब जैसा योग बनता है, सत्संग (आत्म सद्भाव आरक्तं) आत्म स्वभाव में लीन रहने से (पर द्रव्यं न चिंतये)
स्वाध्याय और ध्यान साधना अपनी सुरत रखने, अपना स्मरण बना रहने का अभ्यास पर द्रव्य का चिन्तन ही नहीं होता, स्मरण नहीं आता (न्यान मयो न्यान पिंडस्य) करता है। इसी के अन्तर्गत यह पदस्थ पिंडस्थ ध्यान आते हैं। पदस्थध्यान का पूर्व ज्ञानमयी ज्ञान का पिंड जो निज शुद्धात्मा है (चेतयंति सदा बुधैः ) हे ज्ञानी ! हमेशा में वर्णन किया. यहाँ पिंडस्थ ध्यान का वर्णन करते हैं, जिसमें पाँच धारणाओं के इसका चिन्तवन अर्थात् आराधन ध्यान करो।
माध्यम से साधक अपने उपयोग को अपने में लगाता है। इससे भेदज्ञान पूर्वक विशेषार्थ- पिंडस्थ ध्यान अपने ज्ञान के पिंड असंख्यात प्रदेशों का समूह प्रत्यक्ष आत्मानुभूति होती है। इसके लिये एकान्त निर्जन स्थान में बैठकर, (अगर शुद्धात्म स्वरूप का चिन्तवन ध्यान करना है। इससे असत्य शुभाशुभ भाव विला श्मशान में बैठकर यह ध्यान किया जावे तो अधिक उपयोगी सिद्ध होवे) अपने जाते हैं, पैदा ही नहीं होते। अपना शाश्वत पद ध्रुव स्वभाव प्रगट हो जाता है । ज्ञान पिंड शुद्धात्म स्वरूप को इस पुद्गल पिंड से भिन्न अनुभव इसलिये साधक को हमेशा इसी का ध्यान करना चाहिये।
ॐ करो। मैं मात्र ज्योति स्वरूपचेतन लक्षण शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्व हूँ----यह आत्म स्वभाव में लीन रहने से, हमेशा इसी का चिन्तवन ध्यान करने से पर शरीरादि कर्मों का अनादि से संयोग लगा है----अब इनसे मुझे छूटना है---- द्रव्य शरीरादि पर पदार्थों का चिन्तन स्मरण ही नहीं आता; इसलिये ज्ञानी को हमेशा और उसका एक मात्र उपाय अपने शुद्ध स्वभाव में रहना है ----पर के प्रति कोई अपने ज्ञानमयी ज्ञान समूह शुद्धात्मा का चिन्तवन ध्यान करना चाहिये। पिंडस्थ मोह, राग-द्वेष न होवे----कुछ भी होता रहे----कोई कुछ करे---- मुझे ध्यान करने के लिये पाँच धारणायें बताई गई हैं-पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी खेद खिन्नता राग-द्वेष नहीं होना चाहिये। इसकी साधना अभ्यास के लिये---- और तत्व रूपवती, इन धारणाओं के माध्यम से साधक को अपूर्व आनंद आता है, अपने आपको शरीर से पृथक रखते हुए ---- शरीर को मृतक अवस्था में देखे - आत्म बल बढ़ता है, निज शुद्धात्मानुभूति होती है।
--- मैं जीव आत्मा इस शरीर से निकल गया हूँ---- यह शरीर मर गया है, सब पिउस्थ ध्यान में पांच धारणाओं की विधि-पिंड -समूह को भी कहते हैं धन वैभव कुटुम्ब परिवार छूट गया है----देखो इस दशा में अपने आपको देखो और शरीर को भी कहते हैं। यह ज्ञान का पिंड अरस अरूपी अस्पर्शी एक अखंड ---- मैं यह ज्योति मात्र, चैतन्य तत्व ज्ञायक स्वभावी शरीर से निकल गया हूँ अविनाशी ध्रुव तत्व ज्ञानानंद स्वभावी भगवान आत्मा अनादि से इस पुद्गल पिंड ---- यह पुद्गल पिंड शरीर अचेतन पड़ा है ---- परिवार के लोग मित्र बंधु शरीर में कर्मों से घिरा हुआ है और अपनी अज्ञानता से यह शरीरादि ही मैं हूँ, ऐसा अर्थी बना रहे हैं----श्मशान यात्रा की तैयारी कर रहे हैं। मैं देख रहा हूँ---- मानता आया है और इसी कारण संसार में चारगति चौरासी लाख योनियों में अनन्त अर्थी पर शरीर को रखकर ले जाया जा रहा है ---- मैं देख रहा हूँ ---- श्मशान
बार जन्म-मरण किया। सद्गुरू कृपा, काललब्धियोग,भेदज्ञान के अभ्यास से इसे भूमि में चिता बनाई जा रही है ----शरीर को उस पर रख दिया गया है ---- 9 वस्तु स्वरूप का ज्ञान स्व-पर भेदविज्ञान हुआ और मैं एक अखंड अविनाशी चेतन चारों तरफ से आग लगाई जा रही है ----मैं चिन्मय चैतन्यज्योति ज्ञायक भाव से