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04 श्री आपकाचार जी
गाथा-१९१ P OON लाभ नहीं है। अपने को देखें तो अपना भला होवे। भेदज्ञान तत्व निर्णय का पुरुषार्थ बहिरात्मा पुद्गल को देखता है और उसके रचने की अनन्त भावना करता है, करेंतो स्वयं परमात्मा हो सकते हैं। शक्ति रूप से तो सभी जीव आत्मा परमात्मा हैं, जो हमेशा प्रपंच में लगा रहता है ऐसा बहिरात्मा संसारी प्राणी है। जिसने भेदज्ञान के वह शक्ति प्रगट रूप में व्यक्त हो तो अपना काम बने और यही कार्यकारी है क्योंकि द्वारा स्व-पर को जान लिया तथा जिसे निज शुद्धात्मानुभूति हो गई वह पर में क्या अभी तक हमारी दशा क्या हो रही है।
* करेगा और पर काकर्ता क्यों बनेगा? क्योंकि यह जो कुछ भी बाहर में क्रिया कर्म है,७ परमात्मा बनता नहीं, धनवान बनने मर रहा।
यह सब पुद्गल पर द्रव्य ही है, जब उसके ज्ञान में वस्तु स्वरूप आ गया, जिसने संयम तप करता नहीं, पाप परिग्रह कर रहा।
अमृत का स्वाद चख लिया फिर वह जहर क्यों पियेगा? जिसने यह जान लिया कि हो गया इस जीव को क्या, कुछ समझ आता नहीं।
यह आग है, यह जलाती है तो वह उसको क्यों छुएगा? अब यह बात अलग है कि दुर्गति में जाने फिरता, सद्गति जाता नहीं।
। वर्तमान भूमिकानुसार उसे उस दशा संयोग में रहना पड़ता है; परंतु श्रद्धान में तो सब धनवान बनना भाग्य से,परमात्मा निज हाथ में।
छूट ही गया। अब अपने को देखने में ऐसा लगता है कि इतने कर्म संयोग, इतनी उठा जो करेगा जैसा जो कुछ,जाये उसके साथ में।
अ पटक में लगा है, इतनी उलझनों में फँसा है तो यह कैसे अपने आत्म स्वरूप की सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा तीनों प्रकार के मिथ्यात्व (मिथ्यात्व, सम्यक साधना करता होगा? इसके लिये तारण स्वामी ने इसी श्रावकाचार में एक उदाहरण मिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व) दर्शन मोहनीय से मुक्त हो गया है क्योंकि तीनों दिया है कि समुद्र में मछली रहती है और अपने अंडे रेत में देती है और वह उन्हें मिथ्यात्व तथा चार अनंतानुबंधी के क्षय, उपशम, क्षयोपशम होने पर ही सम्यक्दर्शन छोड़कर मीलों दूर समुद्र में चली जाती है परंतु वह उनकी सुरत रखती है इससे उसके होता है तो अन्तरात्माजीव ने अपने ध्रुव स्वभाव को जान लिया है,शुद्ध सम्यकदृष्टि । अंडे बढ़ते हैं, अगर वह उनकी सुरत भूल जाये तो सब अंडे गल जाते हैं। इसी प्रकार हो गया है और अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव की साधना में ही लगा रहता है। सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा बाहर में सब कुछ कर रहा है परन्तु अन्तर में अपने आत्म
यहाँ कोई प्रश्न करे कि अन्तरात्मा अपने ध्रुव स्वभाव की साधना में ही लगाए स्वभाव की सुरत बनी रहती है और इसी से उसकी पात्रता बढ़ती है तथा इसी से वह रहता है, बाहर में यह पूजा-पाठ, जप-तप, संयम संसारी व्यवहार पुण्य-पाप आनंद में रहता है कहा हैआदि कुछ नहीं करता? क्योंकि अव्रत दशा में हमेशा अपने स्वभाव की साधना में
जा सम्यगधारी की मोहिरीत लगत है अटापटी। नहीं लगा रह सकता?
बाहर नारकीकृत दु:ख भोगत भीतर समरस गटागटी॥ इसका समाधान करते हैं कि यही तो समझने की बात है। यह बात समझ में
यह बड़ी अपूर्व बात है जो अनुभवगम्य है। इसका बाहर से अनुमान भी नहीं आजाये तो अन्तरात्मा होने और अन्तरात्मा को पहिचानने में देर न लगे। अन्तरात्मा लगाया जा सकता, इतना सूक्ष्म विषय है। यह सम्यक्दर्शन की महिमा है और यह किसे कहते हैं ? तारण स्वामी ने पूर्व में बताया है।
सम्यक्त्व की घोषणा है कि एक बार जीव मुझे ग्रहण कर ले फिर दो चार दस भव में विन्यानं जेवि जानंते, अप्पा पर परषये ।
मुक्ति पहुंचाये बगैर मैं छोड़ नहीं सकता। जीव मुझे छोड़ देवे, न जाना चाहे तो भी परिचये अप्प सद्भाव, अंतर आत्मा परपये ॥४९॥
एक बार के सम्पर्कमात्र से मैं उसे मुक्ति पहुँचाऊँगा ही। यह बड़ी अपूर्व बात है, अपने जो जीव भेदज्ञान जानता है, आत्मा और पर को पहिचानता है, जिसे अपने 5 जीवन में एक बार अपने शुद्धात्म तत्व की ओर दृष्टि हो जाये तो बेड़ा पार है; इसलिये आत्म स्वभाव का परिचय हो गया है उसे अन्तर आत्मा जानो।
अन्तरात्मा सबके बीच रहता हुआ, देखने में सब कुछ करता लगता हआ भी, वह बहिरात्मा किसे कहते हैं इसे भी समझ लो
कुछ नहीं करता मात्र अपने स्वरूप की साधना करता है। यह मात्र श्रद्धान सम्यक्दर्शन बहिरप्पा पुद्गलं दिस्टा,रचनं अनन्त भावना।
की महिमा है, जब वह रत्नत्रय (सम्यक्दर्शन,सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र)की साधना परपंच जेन तिस्टते, बहिरप्पा संसार स्थितं ॥५०॥
करता है तो स्वयं परमात्मा हो जाता है।
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