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________________ moa श्री श्रावकाचार जी गाथा-१९१ DOO देव गुरु धर्म सुद्धस्य, साध न्यान मयं धुवं । है। जैसे -बीज बोने पर अंकुर, पत्ते,पुष्प आदि स्वयं होते हैं, लगाना करना नहीं मिथ्या त्रिविध मुक्तंच, संमिक्तं सुखं धुर्व ॥१९१।। पड़ते, इसी प्रकार सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा के जीवन में यह स्वयं घटित होते हैं.न। , होवें ऐसा भी नहीं होता क्योंकि बीज बोने पर अंकुर पत्ते न हों तो समझ लो बीज अन्वयार्थ- (देव गुरु धर्म सुद्धस्य) सच्चे देव गुरू धर्म का (सार्धं न्यान मयं 5 * बोया ही नहीं गया या सड़ गया, गल गया। इसी प्रकार सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा का धुव) तथा अपन ज्ञानमया घुव स्वभाव का साधना आर अचान करताह मथ्या अशुभ पापादि रूप परिणमन छूटता जाता है। शुभ पुण्यादि रूप परिणमन होता त्रिविध मुक्तंच) तीन प्रकार के मिथ्यात्व से मुक्त हो गया है और (संमिक्तं सुद्धं धुवं) सुख धुप) ४ जाता है और वह इन सबसे विरक्त अपने स्वभाव की साधना में लगा रहता है। पात्रता अपने शुद्ध सम्यक्त्व ध्रुव स्वभाव में रहता है। बढ़ने पर यह सब अपने आप छूट जाते हैं। हाथ पर हाथ रखकर बैठने की स्थिति विशेषार्थ-यहाँ अन्तरात्मा सम्यक्दृष्टि की विशेषता का वर्णन चल रहा है। बन जाती है और वह अपने स्वभाव साधना में रत रहता हुआ ध्यान समाधि में लीन अन्तरात्मा सच्चे देव गुरू धर्म का और अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव की श्रद्धा और हो जाता है.४८ मिनिट में सर्वज्ञ केवलज्ञानी अरिहन्त परमात्मा हो जाता है, आयु साधना करता है । सच्चा देव - निजशुद्धात्मा, सच्चा गुरू-निज अन्तरात्मा, पूर्ण होने पर समस्त कर्मों को क्षय कर सिद्ध परमात्मा हो जाता है। सच्चा धर्म-निज शुद्ध स्वभाव और वह अपना ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव ही है, इसकी3 यहाँ फिर प्रश्न होता है कि यह बात समझ में नहीं आई फिर हमें यह कैसे पता साधना और श्रद्धान करता है। लगे कि यह अन्तरात्मा सम्यक्दृष्टि है उसकी पहिचान बताओ? यहाँ कोई प्रश्न करे कि क्या वह सच्चे देव अरिहन्त सिद्ध परमात्मा, सच्चे उसका समाधान करते हैं कि कौन सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा है, कौन मिथ्यादृष्टि गुरू निर्ग्रन्थ वीतरागी साधु और दस लक्षण धर्म को नहीं मानता, इनका श्रद्धान नहीं बहिरात्मा है इसका पता लगाने से अपने को लाभ क्या है? अपने को स्वयं देखो कि करता? 5 स्वयं क्या हैं कौन हैं? क्योंकि जैसे हम हैं वैसा ही तो अपना होना है। यह मौका उसका समाधान करते हैं कि मुक्ति का मार्ग तो सम्यक्रदर्शनशान चारित्राणि मनुष्य पर्याय,सदगुरू की वाणी का शुभयोग, बुद्धि, पुण्य के उदय आदि का मिलना मोक्षमार्ग: है। अपने शुद्धात्मा की अनुभूति सम्यक्दर्शन, अपने स्वरूप का ज्ञान तोतभी सार्थक है कि हम स्वयं अन्तरात्मा सम्यक्दृष्टि हो जायें तो अपना भला है। सम्यज्ञान और अपने शुद्ध स्वभाव में रहना सम्यक्चारित्र है और वह इसी की यह सब सनने समझने लिखने पढ़ने तत्व चर्चा करने का प्रयोजन क्या है? पर को साधना करता है। व्यवहार में सच्चे देव जो उस रूप हो गये हैं अरिहन्त सिद्ध परमात्मा बताने या पर को देखने से अपना भला कभी नहीं हो सकता। हम स्वयं अपने को और सच्चे गुरू निर्ग्रन्थ दिगंबर वीतरागी साधु का बहुमान करता है। जिस मार्ग पर देखें और सदगरू की इस वाणी पर श्रद्धान बहुमान लायें कि मैं स्वयं तीन लोक का चलकर वह ऐसे बने और उन्होंने वही सत्य मार्ग बताया इसका उपकार मानता है सनाथ अनन्तचतष्टय का धारी रत्नत्रय स्वरूप भगवान आत्मा हूँ, सिद्ध स्वरूपी तथा सच्चा धर्म तो वह चेतना लक्षण निजशुद्ध स्वभाव ही मानता है, उसी की श्रद्धा शुद्धात्मा हूँ। अनादिकाल संसार में परिभ्रमण करते बीत गया । प्रत्यक्ष में ज्ञानी साधना करता है। इसमें वह निश्चय-व्यवहार का भेद नहीं करता और न मानता क्या? केवलज्ञानी तीर्थकर परमात्माओं को भी देखा परन्तु स्वयं न सुलटे तो क्या क्योंकि इसके भेद के कारण ही सब भेद हो रहे हैं। लाभ हुआ? इसी प्रकार अभी यह जान लें कि कौन सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा है, तो यहाँ पुनः प्रश्न होता है कि क्या वह दया दान व्रत संयम उत्तम क्षमा आदि को 5 इससे भी क्या लाभ मिलने वाला है ? हम स्वयं सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा बनें तभी धर्म नहीं मानता इनका पालन नहीं करता? अपना भला है और यही प्रयोजनीय है। अव्रत सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा कैसा होता है, उसका समाधान करते हैं कि वह धर्म तो अपना चेतन लक्षणशुद्ध स्वभाव ही इसी का वर्णन चल रहा है। बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि का स्वरूप भी बताया, सम्यक्दृष्टि (मानता है और उसी की श्रद्धा साधना करता है। वह तो सब उसके जीवन में उसकी अन्तरात्मा का स्वरूप भी बताया जा रहा है। उसकी विशेषता भी बताई जा रही है। पात्रतानुसार स्वयं घटित होते हैं, वह इनको करता नहीं है और न इनको धर्म मानता इसके द्वारा अपने को, पर को जिसे देखना चाहें देख लें परंतु पर को देखने से कोई १२५
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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