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७ श्री आवकाचार जी
मूढ क्या मानता है ? माता-पिता और स्त्री, घर और बेटा-बेटी, मित्र आदि सब कुटुम्बी जन बहिन, भानजी, नाना-मामा, भाई-बंधु और रत्न- माणिक, मोती, स्वर्ण-चांदी, धन-धान्य, नौकर-चाकर (द्विपद), घोड़ा, ऊँट, हाथी, रथ, पालकी (चौपाए) यह सर्व मायाजाल असत्य है, कर्म जनित है तो भी अज्ञानी जीव इन्हें अपने मानता है।
दुक्ख कारण जे विसय ते सुह हेउ रमेइ ।
मिच्छाडि जीवडउ इत्थु ण काई करेइ ॥ ८४ ॥
दुःख के कारण जो पांच इंद्रियों के विषय हैं, उनको सुख के कारण जानकर रमण करता है, वह मिथ्यादृष्टि जीव इस संसार में क्या नहीं करता ? सभी पाप करता है अर्थात् जीवों की हिंसा करता है, झूठ बोलता है, दूसरे का धन हरण करता है, दूसरे की स्त्री सेवन करता है, अति तृष्णा करता है, बहुत आरंभ करता है, खेती करता है, खोटे-खोटे व्यसन करता है, जो न करने योग्य कार्य हैं उनको भी करता है । सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा की यह मिथ्या मान्यता छूट जाती है, वह इनको किसी को भी अपने इष्ट या हितकारी नहीं मानता।
यहां कोई प्रश्न करे कि अव्रती तो इन्हीं सबमें लगा रहता है फिर कैसे माना जाए कि यह सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा है ?
SYA YA YA ART YEAR.
गाथा १९०
चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ मैं यह शरीरादि नहीं हूं और न यह शरीरादि मेरे हैं। ऐसा निर्णय सत्श्रद्धान होने का नाम ही सम्यक्दर्शन है उसे ही सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा कहते हैं । उसकी मिथ्या मान्यता बदलते ही सत्यधर्म की उपलब्धि हो जाती है। वह अपनी पात्रता कर्म उदयानुसार उस दशा में रहता है परन्तु उसके श्रद्धान में तो निरन्तर अपना ध्रुव तत्व शुद्धात्म स्वभाव ही झूलता है फिर वह किसी बाहरी क्रिया पुण्य-पापादि को धर्म नहीं मानता फिर उसको संसारी वेदना नहीं होती बल्कि सबके बीच रहता हुआ
दोष रहित गुण सहित सुधी जे, सम्यक्दर्श सजै हैं । चरित मोहवश लेशन संजम, पै सुरनाथ जजै हैं ॥ गेही पे गृह में न रचे ज्यों, जल तें भिन्न कमल है। नगर नारि को प्यार यथा, कादे में हेम अमल है ॥ (छहढाला ३/१५) सम्यक्दर्शन की महिमा बड़ी अपूर्व है और इसकी उपलब्धि भी सहज साध्य है। अपने आपको जानना ही तो सम्यक्दर्शन है। इसके होने पर ५८ लाख योनियां छूट जाती हैं।
प्रथम नरक विन षट् भू ज्योतिष, वान भवन षंढ नारी । थावर विकलत्रय पशु में नहिं, उपजत सम्यक्धारी ॥
उसका समाधान करते हैं कि भाई! यह तो श्रद्धान-मान्यता की बात है, अभी क्रिया रूप परिणमन की बात नहीं है, सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा के भीतर से इनके प्रति जो एकत्व की इष्टपने की मान्यता थी वह छूट गई है। अभी बाहर से संयोग नहीं छूटा है परन्तु वह भी जल्दी छूट जाने वाला है। जैसे किसी वृक्ष की जड़ टूट जाए, तो कितना बड़ा हरा भरा विशाल वृक्ष हो, उसके गिरने सूखने में कितने दिन लगेंगे अर्थात् जल्दी ही सूखकर गिर जायेगा, ऐसे ही सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा की दृष्टि, मान्यता से यह सब छूट गये हैं, मजबूरी में कर्मवशात रहता है।
अपनी बात है और अपने को समझना है। इसके लिये ही तारण स्वामी ने इतना विस्तृत विवेचन किया है कि कहीं धोखा न हो जाये क्योंकि इसमें भी निश्चयाभासी व्यवहारभासी उभयाभासी होने का डर है और किसी अज्ञानी कुगुरु के जाल में फँसकर अपने श्रद्धान को डिगाना भी नहीं है क्योंकि इस दशा में दोनों तरफ से संभाल सावधानी की आवश्यकता है। आजकल लोग अपने आपको तो नहीं देखते और दूसरों का सम्यक्दर्शन देखते फिरते हैं तथा अपने कुतर्कों से संयम सदाचार से भी भ्रष्ट करते हैं। आप डुबन्ते पांडे, ले डूबे जिजमान । अपने आपमें हम स्वयं अपने को देखें, अपने सामने सद्गुरू की वाणी जिनवाणी आईना है, अपना निर्णय हम स्वयं करें कि हम क्या हैं ? न किसी को बताने की जरूरत है, हम स्वयं जानें या सर्वज्ञ जानें, दूसरा कोई जान ही नहीं सकता। यह अनुभूति का बड़ा सूक्ष्म विषय है। आगम में सभी प्रकार के प्रमाण हैं, किस अपेक्षा क्या कहा है ? इसका स्वयं विचार कर निर्णय करें। इसी बात को सद्गुरू विशेषता से आगे गाथा में कहते हैं194
यहां कोई कहे कि ऐसा तो हम भी मानते हैं कि यह हमारे कोई भी कुछ भी नहीं हैं, हम भी मजबूरी में रहते हैं, तो क्या हम भी सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा हो गये ? उसका समाधान करते हैं कि यही तो समझने का विषय है- सम्यक्दर्शन या सम्यक्दृष्टि होना कोई कठिन नहीं है। आप हम सब जो संसारी, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं। जो जीव भेदज्ञान पूर्वक अपने आत्म स्वरूप की प्रतीति करता है, जिसको ऐसा अनुभूतियुत श्रद्धान हो जाता है कि मैं एक अखंड अविनाशी
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