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________________ w श्री आचकाचार जी वर्तमान में तो आर्त-रौद्र ध्यान ही अपने आप चलते हैं। इनसे बचने हटने के लिये ही एकमात्र निज चेतन लक्षण शुद्ध स्वभाव ही है और इसी के आश्रय इसी की साधना यह धर्म ध्यान की साधना है। साधना का लक्ष्य आत्म कल्याण मुक्ति की प्राप्ति होवे चिन्तन-मनन करने, अपने ऐसे शुद्ध स्वभाव में लीन रहने पर ही परम सुख। और पुरुषार्थ पूर्वक लगो तो यह सब हो सकता है। परमशांति, परमानंद मोक्ष मिलता है, जिसे अरिहन्त सिद्ध पद कहते हैं। यह बाहर ध्यान से ही कमों की निर्जरा होती है। * में किसी पर के आश्रय से नहीं मिलता और परजीव जो उस दशा में हो गए हैं, ज्ञान ध्यान की साधना ही एकमात्र साधक का पुरुषार्थ है। उनका आश्रय करने, पूजन वन्दना भक्ति करने से भी सत्य धर्म उपलब्ध नहीं। घर परिवार में फंसे रहो, पाप परिग्रह में लगे रहो, मोह-राग में धंसे रहो और होता। वह तो निज के आश्रय निज स्वभाव में ही निज के पुरुषार्थ से प्रगट होता हैसमता शांति या सामायिक ध्यान करना चाहो तो नहीं हो सकता। इसके लिये पूर्व इसी बात को देवसेनाचार्य तत्वसार में कहते हैंमें ही ध्यान करने वाले के लक्षण और पात्रता बता दी है, तभी ध्यान सामायिक हो। झाणेण कुणउ भेयं,पुग्गल जीवाण तहय कम्माणं। सकती है। संसार शरीर भोगों से विरक्ति, विषय-कषायों से निवृत्ति हो तभी ध्यान में घेत्तव्वो णिय अप्पा, सिद्ध सरूवो परो बंभो ॥ २५॥ सामायिक होती है। ज्ञानी, ध्यान के बल से जीव और पुद्गल तथा जीव और कर्म का भेद करके रूपातीत ध्यान अपने निरंजन ज्ञानमयी ध्रुवतत्व जो पंचमज्ञानमयी अनन्त अपने आत्मा को सिद्ध स्वरूपी परम ब्रह्म जानता है। चतुष्टयधारी, सर्वज्ञ स्वरूप शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से है इसका जो श्रद्धान करता है, धर्म चर्चा का विषय नहीं अनुभूति का विषय है, भेवज्ञान के द्वाराजानकर वही शुद्ध सम्यक्दृष्टि है तथा इसी की अनुभूति लीनता रूपातीत ध्यान है। हैं जो इसका ध्यान करता है, उसको प्रत्यक्ष अनुभूति में आता है कि यह शरीरादि ऐसे जो शुद्ध धर्म का श्रद्धान कर उसकी साधना के मार्ग पर चलता है वही पुदगल भिन्न है और मैं चेतन लक्षण जीव आत्मा भिन्न है तथा यह कर्म भी सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा होता है। S मेरे से भिन्न है, मैं तो सिद्ध स्वरूपी परमब्रह्म परमात्मा हूँ। ऐसा अन्तरात्मा जिसे भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति हो गई है उसकी अपने स्वरूप को कैसा जानता है इसी बात को आगे कहते हैंक्या विशेषता होती है, इसे आगे कहते हैं मल रहिओ णाणमओ,णिवसइ सिद्धीए जारिसोसिद्धो। प्रति पूर्न सुद्ध धर्मस्य,असुद्धं मिथ्या तिक्तयं । तारिसओ देहत्थो,परमो बंभो मुणेयवो ॥ २६॥ सुख संमिक संसुख, साध संमिक दिस्टितं ॥ १९॥ जैसा कर्म मल से रहित ज्ञानमयी सिद्धात्मा, सिद्ध स्वरूप में निवास करता है, वैसा ही मैं परमब्रह्म स्वरूप आत्मा देह में स्थित हूँ ऐसा जानता है। अन्वयार्थ- (प्रति पूर्न सुद्ध धर्मस्य) शुद्ध धर्म का, निज शुद्ध स्वभाव का इसी बात को योगीन्दुदेव परमात्म प्रकाश में कहते हैंजिसे परिपूर्ण श्रद्धान हो गया (असुद्धं मिथ्या तिक्तयं) अशुद्ध मिथ्या मान्यता छूट अप्पिं अप्पु मुणतु जिउ सम्मादिठ्ठि हवेई। गई (सुद्ध संमिक संसुद्ध) परमशुद्ध निजशुद्धात्मा की (साधू संमिक दिस्टित) साधना सम्माइडिउ जीवडउ लहु कम्मई मुच्चेई ॥ ७६॥ में रत सम्यक्दृष्टि है। अपने को अपने से जानता हुआ यह जीव सम्यक्दृष्टि होता है और सम्यक्दृष्टि विशेषार्थ- सच्चे धर्म के श्रद्धानी सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा की क्या विशेषता 5 हआ संता जल्दी कर्मों से छूट जाता है। उसकी अशुद्ध मिथ्या मान्यता छूट जाती है। होती है, वह यहाँ बताया जा रहा है। अन्तरात्मा को सच्चे धर्म निज शुद्ध स्वभाव का अर्थात वह पर को अपना नहीं मानता, इसके विपरीत अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव कैसा परिपूर्ण श्रद्धान अनुभूति हो गई है। जिससे अशुद्ध पुण्य-पापादि बाह्य क्रियाओं में मानता है इसे कहते हैंए धर्म मानने की मिथ्या मान्यता छूट गई है। वह अपने परमशुद्ध, निज शुद्धात्मा की जणणी जणणु वि कंत घरु पत्तु वि मित्तु वि दव्यु । ही श्रद्धा साधना करता है। पर में या पर से धर्म का कोई संबंध नहीं है। धर्म तो माया जालु वि अप्पणउ मूढ मण्णइ सव्वु ॥ ३ ॥ Detatodernetstaldier
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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