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श्री आवकाचार जी
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रमन रस सिद्धि जयं- - अर्हन्त सर्वन्य दिप्ति सुइ उवनं, दिष्टि दिप्ति रमन तं जिनय जिनु --- तं तारन तरन सहाइ सहज जिनु, अन्मोय समय सिहु सिद्धि जयंभवियन विंद रमन सम मुक्ति पयं--- ----| (ममल पाहुड़ फूलना - ९५ ) बस-बस- --- ऐसे ही इसी निर्विकल्प शून्य शांत दशा में लीन रहें
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उपयोग बाहर जाने पर मंत्र जप करेंमें अपने आपको देखें---जय होकी जय ----- 1
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-- पुन: उसी सर्वज्ञ स्वरूप अरिहन्त दशा -- बोलो केवलज्ञानी- अरिहन्त परमात्मा
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ॐ नमः सिद्धं --- ॐ नमः सिद्धं --- ॐ नमः सिद्धं ---
ॐ शान्ति -- ॐ शान्ति ॐ शान्ति-- यह रूपस्थ ध्यान का प्रयोग है। आगे रुपातीत ध्यान का वर्णन करते हैं
रुपातीत विक्त रूपेन, निरंजनं न्यान मयं धुवं ।
मति श्रुत अवधिं दिस्टा, मनपर्जय केवलं धुवं ॥ १८८ ।। अनंत दर्शनं म्यानं बीजं मंत सौभ्ययं ।
सर्वन्यं सुद्ध द्रव्यार्थं, सुद्धं संमिक दर्सनं ॥ १८९ ॥
अन्वयार्थ (रुपातीत विक्त रूपेन) रूपातीत ध्यान अपने स्वरूप को व्यक्त
करना, प्रगट अनुभूति में लेना है (निरंजनं न्यान मयं धुवं ) जो निरंजन सर्व कर्म मलादि से रहित ज्ञानमयी ध्रुव तत्व है (मति श्रुत अवधिं दिस्टा, मनपर्जय केवलं धुवं) जिसमें मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवलज्ञान यह पांचों ज्ञान एकरूप नित्य दिखाई देते हैं ।
(अनंत दर्सनं न्यानं) जो अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान (वीर्ज नंत सौष्ययं) अनन्त वीर्य और अनन्त सुखमयी है (सर्वन्यं सुद्ध द्रव्यार्थं ) सर्वज्ञ स्वरूप शुद्ध द्रव्य निज आत्म तत्व है (सुद्धं संमिक दर्सनं) ऐसा देखना शुद्ध सम्यक्दर्शन है यही रूपातीत
ध्यान है ।
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रुपातीत ध्यान सिद्ध स्वरूप का स्मरण ध्यान करना, सिद्ध के गुणों का चिन्तन करते हुए सिद्ध के समान अपने आत्मा का यथार्थ स्वरूप ध्यावें । जैसे सिद्ध भगवान हैं वैसा मैं हूँ, मैं ही सर्वज्ञ हूँ, ज्ञानापेक्षा सर्वव्यापक हूँ, सिद्ध स्वरूप हूँ, मैं ही
गाथा- १८८, १४९
साध्य हूँ, संसार से रहित हूँ, परमात्मा हूँ, परमज्योतिर्मय हूँ, सकल दर्शी हूँ, मैं ही सर्व अंजन से रहित निरंजन शुद्ध हूँ, ऐसा ध्यान करें तब अपना स्वरूप निश्चल अमूर्तीक कलंक रहित जगत में श्रेष्ठ चैतन्य मात्र ध्यान ध्याता ध्येय के भेद रहित ऐसा अतिशय रूप प्रकाशमान होता है।
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जहं ध्यान ध्याता ध्येय को, न विकल्प वच भेद न जहाँ । चिद्भाव कर्म चिदेश कर्ता, चेतना किरिया तहाँ ॥ तीनों अभिन्न अखिन्न, शुद्ध उपयोग की निश्चल दशा। प्रगटी जहाँ दृग ज्ञान व्रत ये, तीन धा एकै लसा ॥ (छहढाला - ६ / ९ ) शरीरादि से रहित निज चैतन्य ज्योति, ज्ञानानंद स्वभाव में लीन हो जाना ही रूपातीत ध्यान है । यह ध्यान सब विकल्प जालों से, भेदभावों से भिन्न करके परमामृत रस में डुबाता है। इसके बार-बार अभ्यास साधना करने से परम शान्ति परमानंद और सिद्ध पद की प्राप्ति होती है। ध्यान के काल में असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा अपने आप होती है।
अन्तरात्मा, सम्यकदृष्टि साधक हमेशा इन्हीं ध्यान साधनाओं में अपने उपयोग को लगाता है, समय का सदुपयोग करता है।
उसका समाधान करते हैं कि वर्तमान में निर्विकल्प ध्यान तो होता नहीं है, सविकल्प ध्यान ही होता है। अपने उपयोग और मन को लगाने के लिये बहुत प्रयास साधना और अभ्यास करना पड़ता है। इसके लिये मंत्र जप से मन को शांत किया
विशेषार्थ रूपातीत अर्थात् रूप से अतीत- सिद्ध स्वरूप का ध्यान करना 5 जाता है। इसकी दो विधि हैं कि या तो जोर-जोर से पूरी शक्ति से चिल्लाकर मंत्र रुपातीत ध्यान है। जप करो तो मन शांत और शरीर भी शून्य हो जाता है या मंत्र जप की इतनी तीव्र प्रक्रिया अन्तर में चलना चाहिये कि सिर्फ मंत्र ही गूंजता रह जाये। उपयोग को लगाने के लिये चिन्तन की धारा बदलना पड़ती है। जो अभी पदस्थ पिंडस्थ आदि ध्यानों के अभ्यास में बताया है, वैसा करने से उपयोग अपने में लगने लगता है क्योंकि
यहाँ कोई प्रश्न करे कि हम भी सामायिक करते हैं, मंत्र जप करते हैं, एकाग्र शान्त होने के लिये ध्यान का अभ्यास करते हैं परन्तु न जाने कहाँ-कहाँ के भाव आने लगते हैं। हम उस दशा में ज्यादा देर बैठ ही नहीं सकते, घबराहट मच जाती है। स्वाध्याय और मंत्र जप से भी यही होता है, मन न जाने कहाँ-कहाँ चला जाता है ऐसे में हम क्या करें ?
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