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श्री आवकाचार जी
दिस्टते) तीर्थंकरों के रूप में देखना (उवंकारस्य ऊर्धस्य) पंच परमेष्ठियों को जो ऊर्ध्वगमन करके (ऊर्धं च सुद्धं धुवं ) शुद्ध-ध्रुव, सिद्ध दशा में हो गये हैं- ऐसे अपने स्वरूप का विचार करना ।
विशेषार्थ - रूपस्थ ध्यान अपने चैतन्य स्वरूप का ध्यान करना है, जो अर्हत और सिद्ध के समान ध्रुव अविनाशी शुद्ध है, ऐसी तुलनात्मक दृष्टि से स्वगत और परगत अर्थात् स्वयं मैं ऐसा हूँ, सर्वज्ञ स्वरूप अरिहन्त - सिद्ध परमात्मा हूँ तथा परगत में अरिहन्त परमात्मा तीर्थंकर स्वरूप ऐसा है इसका विचार करते हुए अपने स्वरूप में स्थित होना ही रूपस्थ ध्यान है।
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चैतन्य स्वरूप सर्व चैतन्य स्वरूप ही है, उसमें मिथ्यात्व, राग-द्वेषादि कुछ भी नहीं है, वह तो सर्व मल रहित निर्मल और ध्रुव है, जो त्रिलोक में शाश्वत है सदा एक रूप ही है। स्वयं अरिहन्त के समान केवलज्ञानमयी सर्वज्ञ अनंत चतुष्टय का धारी तीर्थंकर परमात्मा है, ऐसे अपने शुद्ध स्वरूप का ध्यान करना ही रूपस्थ ध्यान है।
इसके स्वगत-परगत दो भेद हैं, इनके माध्यम से अपने स्वरूप में लीन होना । सशरीरी अरिहन्त दशा के शुद्ध स्वरूप का ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है ।
रूपस्थ ध्यान करने की विधि - स्वस्थ - निराकुल, निःशल्य होकर ॐ ह्रीं श्री मंत्र का जप करें- णमो अरिहंताणं, अरिहन्त के स्वरूप का चिन्तवन करें, जो जीव आत्मा निज शुद्धात्मानुभूति सहित समस्त पाप-आरम्भ परिग्रह का त्याग कर निर्ग्रन्थ दिगम्बर वीतरागी साधु होते हैं, तप, साधना रत्नत्रय की आराधना करते हुए अपने ममल स्वभाव में लीन रहते हैं, ध्यान समाधि लगाते हैं, इससे घातिया कर्म क्षय होकर अनन्तचतुष्टय केवलज्ञान प्रगट होता है।
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अरिहन्त परमात्मा तीर्थंकर देव का समवशरण लगता है। सौधर्म इन्द्र, कुबेर समवशरण की रचना करते हैं। जिससे निज शुद्धात्मा में लीन हुए भव्य जीव अरिहन्त परमात्मा बनकर बैठते हैं। अपने को इसी रूप में उस स्थान पर बैठा हुआ देखें-- तीर्थकर परमात्मा के चौंतीस अतिशय, अष्ट प्रातिहार्य, चार चतुष्टय ऐसे छ्यालीस 5 गुण होते हैं.
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- इनका विचार चिन्तवन करें (ममल पाहुड़ फूलना - ९३ अतिशय चौंतीस) और यह अपनी आत्मा मे देखें • इनका आध्यात्मिक विशेष चिन्तन श्री तारण स्वामी ने किया है।
जन्म के दस अतिशय- १. खेद का अभाव, २. मल का अभाव, ३. मिष्ट
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गाथा- १८५-१८७
वचन, ४. दूध समान रुधिर, ५. वज्रऋषभ नाराच संहनन, ६. समचतुरस्र संस्थान, ७. सुन्दर रूप, ८. सुगन्धता, ९. १००८ लक्षण, १०. अतुलबल ।
केवलज्ञान के दस अतिशय- १. जीव वध नहीं, २. सुभिक्ष चहुंओर, ३. उपसर्ग का अभाव, ४. आकाश में गमन ५. कवलाहार नहीं, ६. चारमुख सहितपना, ७. ईश्वरपना, ८. छाया रहितपना, ६. पलन न लगना, १०. नख केश न बढ़ना ।
देवकृत चौदह अतिशय- १. अर्धमागधी भाषा, २. बैर रहितपना, ३. फल फूल होना, ४ . पृथ्वी दर्पण सम, ५. सर्वधान्य फलना, ६. जनमन हर्ष, ७. धूल कंटक रहित भूमि, ८. सुगंधपना, ६. कमलों पर गमन, १०. निर्मल आकाश, ११. जल की वर्षा, १२. मंगलद्रव्य, १३. धर्म चक्र, १४. जय जय शब्द । अष्ट प्रातिहार्य( फूलना - ६४ ) १. अशोक वृक्ष, २ . दिव्यध्वनि, ३. चौसठ चमर, ४. भामंडल, ५. सिंहासन, ६. छत्रत्रय, ८. दुन्दुभिशब्द ।
अरिहन्त भगवान १८ दोष रहित होते हैं- १. जन्म, २. जरा, ३. तृषा, ४. क्षुधा, ५. विस्मय (आश्चर्य), ६. अरति, ७. खेद, ८. रोग, ९. शोक, १०. मद, ११. मोह, १२. भय १३. निद्रा, १४. चिंता, १५. स्वेद ( पसीना ), १६. राग, १७. द्वेष, १८. मरण ।
इस प्रकार अरिहन्त परमात्मा के गुणों का चिन्तवन करते हुए समवशरण में अपने आपको देखें- -- देखो - - - वह अनन्तचतुष्टय-- - सर्वज्ञ स्वभाव-
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पूर्ण शुद्ध परमानंदमय वाह वाह जय हो जय हो परमानंद सर्वांग से प्रस्फुटित हो रहा है- - ओंकार ध्वनि निकल रही है-अतीन्द्रिय आनंद ---अमृत रस बरस रहा है- -दिव्य ध्वनि खिर रही हैदेखो अपने आपको इस दशा में देखो- -- मैं स्वयं सर्वज्ञ परमात्माअरिहन्त भगवान --- --केवलज्ञानी तीर्थंकर हूँजिननाथ सुयं --- जिन --- जिनयति नन्तानंत -ममल पय मिलियं भय षिपिय अमिय रस परम सुइ सिद्धि जयं
--उव
--उवन पयं-
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रयंपयं
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--आ-हा-हा-
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--- पर्जयभय गलिय-
• भवियन अन्मोय तरन
(ममल पाहुड़ फूलना - ९५ )
नन्त चतुष्टय सुयं रमन जिनु गुन नन्त नन्त छायालरयं । ----- तं नन्तानन्त उवएस रमन जिन- --अन्मोय समय सिहु सिद्धि जयं- • भवियन अमिय
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