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अप्पा झाया
OON श्री श्रावकाचार जी
गाथा-१९९८ सम्यक्दर्शन का बीज ही मुक्ति का फल देता है -
हे जीव! तू दूसरे तीर्थ को मत जावे, दूसरे गुरू को मत सेवे, अन्य देव को मत बाहर की क्रिया पाप-पुण्य, संयम तप आदि भूमिका पात्रतानुसार अपने आप ध्यावे । रागादि मल रहित आत्मा को छोड़कर अन्यत्र कहीं रमण मत कर, अपना । होते हैं वह कुछ नहीं करता। जिसके होते हैं वह ज्ञानी है, जो करता है वह अज्ञानी , आत्मा ही तीर्थ है, वहाँ रमण कर।आत्मा ही गुरू है उसकी सेवा कर और आत्मा ही है। इसी अन्तरात्मा की विशेषता को आगे की गाथा में कहते हैं
* देव है उसी की आराधना कर। अपने सिवाय दूसरे का सेवन मत कर। देव देवाधिदेवं च, गुरू ग्रंथं च मुक्तयं ।
अप्पा दंसणु केवलु वि अण्णु सव्वु ववहारु। धर्म सुद्ध चैतन्यं, साध संमिक्तं धुवं ॥१९२ ।।
एक्कु जि जोइय झाइयइ जो तइलोयह सारु॥ ९६॥
केवल एक आत्मा ही सम्यक्दर्शन है, दूसरा सब व्यवहार है इसलिये हे योगी! अन्वयार्थ- (देव देवाधिदेवं च) देवों का अधिपति देव इन्द्र और इन्द्रों के द्वारा
है एक आत्मा ही ध्यान करने योग्य है जो कि तीन लोक में सार है। पूज्यनीय जो देव अरिहन्त सिद्ध परमात्मा (गुरू ग्रंथं च मुक्तयं) गुरू जो सब ग्रन्थि 5
अप्पा झायहि णिम्मलउ किं बहुएँ अण्णेण। बन्धनों से मुक्त हो गये (धर्म सुद्ध चैतन्यं) धर्म जो अपना शुद्ध चैतन्य स्वरूप है।
जो झायंत परम पउ लग्भइ एक्क खणेण ॥१७॥ (साध संमिक्तं धुवं) सम्यक्दृष्टि ऐसे ध्रुव स्वभाव की साधना करता है।
हे योगी! तू निर्मल आत्मा का ही ध्यान कर और बहुत पदार्थों से क्या? विशेषार्थ-यहाँ सम्यक्दृष्टि अन्तरात्मा की विशेषता का वर्णन किया जा रहा है देश काल पदार्थ आत्मा से भिन्न हैं, पर जीव भी भिन्न हैं, उनसे कुछ प्रयोजन कि वह अपने धुव स्वभाव की ही श्रद्धा साधना करता है। देवों का अधिपति इन्द्रदेव नहीं है। रागादि विकल्प जाल के समूहों के प्रपंच से क्या लाभ ? एक निज और इन्द्रों द्वारा पूज्यनीय जिनेन्द्रदेव और जिनेन्द्र देव कौन ? शुद्धात्म तत्व । वह स्वरूप को ध्याओ। जिस ध्रुव तत्व शुद्धात्मा के ध्यान करने वालों को क्षण मात्र में कहाँ रहते है? निज चैतन्य स्वरूप में। वह किसकी साधना आराधना से जिनेन्द्र देव मोक्ष पद मिलता है। बने? निज शुद्धात्मा की।
ए यहाँ भेदज्ञानी अन्तरात्मा की विशेषता का वर्णन चल रहा है, जिसका गुरू जो निर्ग्रन्थ दिगम्बर वीतरागी साधु हैं वह क्या करते हैं? निज शुद्धात्म योगीन्ददेव ने भी परमात्म प्रकाश गाथा ९३ से १२३ तक विशद् वर्णन किया है। स्वरूप की साधना। यह साधु क्यों बने? इस दशा में कैसे आये ? धर्म का आश्रय
यहाँ कोई प्रश्न करे कि इससे तो देव गुरू धर्म का कोई महत्त्व ही नहीं रहा लेकर मुक्ति के मार्ग पर चल रहे हैं, अपने ध्रुव स्वभाव परमानंदमय रहना है। फिर यह व्यवहार में देव गुरू धर्म की आराधना, वन्दना, भक्ति पूजन करने का क्या
धर्म क्या है ? शुद्ध चैतन्य स्वरूप। वह कहाँ है? वह प्रत्येक जीव का निज प्रयोजन रहा? जब एक जिन शुद्धात्मा ही सब कुछ है,तो बस आत्मा ही आत्मा में स्वभाव है। यह किसको मिलता है, कहाँ मिलता है? जो भेदज्ञान पूर्वक स्व-पर का लगे रहो फिर संसार से. शरीर से, परिवार से या किसी से संबंध ही क्या है? ज्ञान करके निज स्वभाव को देखता है उसे वह अपने में ही मिलता है, तोजो अन्तरात्मा र उसका समाधान करते हैं कि भाई! जरा शान्त होकर सुनो समझो, यहाँ धर्म है, जिसने अपने चैतन्य स्वरूप को जान लिया है, उसका लक्ष्य देवत्वपना प्रगट का स्वरूप-धर्मी जीव की मान्यता श्रद्धान की बात चल रही है। जो जीव अपना करने का है, निर्ग्रन्थ दिगंबर वीतरागी साधु बनने का है, उसके ज्ञान में देव गुरूधर्म आत्म कल्याण करना चाहते हैं, संसार के परिभ्रमण जन्म-मरण से छूटना चाहते का स्वरूप स्पष्ट दिखाई दे रहा है और वह इसी लक्ष्य से अपने ध्रुव स्वभाव की 5 हैं, उन्हें एक मात्र धर्म का ही आश्रय शरण ग्रहण करना पड़ती है क्योंकि संसार में साधना श्रद्धान करता है।
और किसी अन्य पदार्थ, अन्य जीव, पुण्य पापादि कर्मों से कभी भी यह झंझट मिटने इसी बात को योगीन्दुदेव परमात्म प्रकाश में कहते है, अन्तरात्मा की विशेषता
वाली नहीं है। एक धर्म के आश्रय ही मुक्ति का मार्ग बनता है और धर्म क्या है? धर्म अण्णु जि तित्थुम जाहि जिय अण्णु जि गुरुउ म सेवि।
अपना चैतन्य लक्षण शुद्ध स्वभाव है। जो जीव धर्म के अर्थात् निज स्वभाव के अण्णु जि देउ म चिंति तुहुँ अप्पा विमलु मुएवि ॥ ९५॥ आश्रय लगता है वह धर्मी सम्यक्दृष्टि ज्ञानी अन्तरात्मा कहलाता है और फिर धर्म की