________________
श्री आवकाचार जी
"
लिंगं त्रिविधं उक्तं चतुर्थ लिंग न उच्यते । जिन सासने प्रोक्तं च संमिक दिस्टि विसेसतं ।। १९७ ।।
अन्वयार्थ (लिंगं च जिनं प्रोक्तं ) जिनेन्द्र परमात्मा ने लिंग अर्थात् पद कहे हैं (त्रिय लिंगं जिनागमं ) तीन लिंग जिनागम में मुक्ति मार्ग पर चलने वालों के बताये हैं (उत्तम मध्यम जघन्यं च) उत्तम मध्यम और जघन्य (क्रिया त्रेपन संजुतं) जो त्रेपन क्रिया सहित होते हैं।
(उत्तमं जिन रूवी च) उत्तम जिनेन्द्र परमात्मा जैसे रूपवाला (मध्यमं च मति श्रुतं) मध्यम जो मति श्रुत ज्ञानधारी श्रावक है (जघन्यं तत्व सार्धं च) और जघन्य जो तत्व का श्रद्धानी (अविरतं संमिक दिस्टितं) अविरत सम्यकदृष्टि है।
,
(लिंगं त्रिविधं उक्तं चतुर्थ लिंग न उच्यते) लिंग तीन प्रकार के कहे गए हैं, चौथा लिंग नहीं कहा गया है (जिन सासने प्रोक्तं च) जिनशासन और जिनवाणी में यही कहे गए हैं (संमिक दिस्टि विसेसतं) इनमें सम्यक्दर्शन और सम्यकदृष्टि की विशेषता है।
विशेषार्थ जिन जीवों को भेदज्ञान पूर्वक स्व-पर का ज्ञान, जीव और कर्म पुद्गल शरीरादि की भिन्नता भाषित हो जाती है तथा आत्मानुभूति, अपने सत्स्वरूप का दर्शन हो जाता है वह अन्तरात्मा सम्यक्दृष्टि मोक्षमार्ग के पथिक होते हैं; क्योंकि बगैर सम्यक्दर्शन के मोक्षमार्ग बनता नहीं है तो जिनेन्द्र परमात्मा जिन्होंने अनन्त चतुष्टय केवलज्ञान प्रगट कर लिया है। जो अरिहन्त सर्वज्ञ, वीतरागी, हितोपदेशी देव पद पर विराजमान हो गये, उनसे प्रार्थना की गई कि प्रभु आप तीन लोक के नाथ जगत उद्धारक, दीनदयाल करुणा सिंधु पतितोद्धारक हैं, आप हमें पार लगाईये, हम • आपकी प्रार्थना भक्ति पूजन वन्दना करते हैं। तब जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा कि हे भव्य जीवो! मैं जिस मार्ग से चलकर आया हूँ और इस पद पर पहुँचा हूँ, वैसे तुम भी हो सकते हो, मैं किसी का भला-बुरा नहीं कर सकता, न किसी को पार लगा सकता हूँ, जिस विधि से मैं पार हुआ हूं, वह विधि मार्ग तुम्हें बताता हूं, तुम भी ऐसा प्रयत्न पुरुषार्थ करो तो तुम मुझ जैसे हो सकते हो। देखो, इस शरीर से भिन्न तुम जीव आत्मा हो, यह शरीर तुम नहीं हो; क्योंकि यह प्रत्यक्ष अनुभव प्रमाण जानने में आता है कि इस शरीर से चेतन तत्व जीव आत्मा निकल जाता है तब इस शरीर को जला दिया जाता है और यह सब संयोगी पदार्थ भी छूट जाते हैं इसलिये भेदज्ञान पूर्वक
mask sex is met résis week resis
गाथा- १९६-१९७
निर्णय करो। अपने सत्स्वरूप का श्रद्धान करो तो तुम आत्मा से परमात्मा हो सकते हो ।
प्रश्न किया गया कि प्रभो ! हम तो अज्ञानी संसारी प्राणी हैं, पाप परिग्रह घर गृहस्थी में फँसे हैं, हम कैसे मुक्ति मार्ग पर चल सकते हैं ?
जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा कि तुम इसी दशा में ऐसे रहते हुए भी धर्म को उपलब्ध हो सकते हो, मुक्तिमार्ग पर चल सकते हो। इसके लिये जिनागम में जघन्य लिंग, मध्यम लिंग, उत्तम लिंग यह तीन लिंग (पद) बताये हैं।
जघन्य लिंग, सामान्य गृहस्थ अव्रत सम्यक्दृष्टि जिसे तत्व की यथार्थ श्रद्धा हो गई है, वही इस मार्ग का पहला और सच्चा पथिक होता है। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अव्रत सम्यक्दृष्टि होता है वह जब आगे बढ़ता है, शुद्धात्म स्वरूप ध्रुव तत्व की साधना करता है, उसकी पात्रता बढ़ती है तो वह मध्यमलिंग व्रतधारी श्रावक हो जाता है, जिसके मति श्रुत ज्ञान की विशेष निर्मलता में आत्म आराधना और संयम तप की साधना होती है। वह पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक कहलाता है। जो घर परिवार समाज के बीच रहता हुआ अपनी आत्म साधना करता है; क्योंकि जिसे आत्मानुभूति हो जाती है, उसकी बड़ी अपूर्व दशा हो जाती है। वह निरंतर अपने सिद्ध स्वरूप ध्रुव तत्व शुद्धात्मा को ही देखता है। उसी के स्मरण ध्यान में रत रहता है ; क्योंकि जिसे अतीन्द्रिय आनंद अमृत का स्वाद मिल गया है, वह उसे कैसे छोड़ सकता है। मजबूरी कर्मवशात् इस कर्म संयोग में रहना पड़ता है। जैसे साधना की स्थिति पात्रता बढ़ती है, वही उत्तम लिंग निर्ग्रन्थ दिगम्बर वीतरागी जिन रूपी साधु हो जाता है।
छठे-सातवें गुणस्थान में झूला झूलता है। लक्ष्य तो परमात्म पद पूर्ण शुद्ध सिद्ध दशा का, मुक्ति को प्राप्त करने का है। अपने रत्नत्रय स्वरूप की साधना में रत रहता है, इससे पात्रता बढ़ती है, श्रेणी माड़ता है और आठवें गुणस्थान से एक अन्तर्मुहूर्त में तेरहवाँ गुणस्थानवर्ती अरिहन्त सर्वज्ञ केवलज्ञानी परमात्मा हो जाता है। आयु आदि अघातिया कर्म क्षय होने पर पूर्ण शुद्ध सिद्ध परमात्मा हो जाता है। यहाँ विशेषता प्रमुखता सम्यक्दर्शन की है। जिन शासन में इसी अपेक्षा मुक्ति का मार्ग कहा गया है। बगैर सम्यक्त्व के मुक्ति का मार्ग नहीं बनता इसलिये अपने आत्म स्वरूप का श्रद्धान करो। शरीरादि पर पदार्थों से भेद भिन्नता करो और मुक्तिमार्ग पर चलो इसी के लिये यह मनुष्य भव और सब शुभयोग मिले हैं। मुक्तिमार्ग पर चलने
१३१