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________________ RSON श्री श्रावकाचार जी का, धर्म साधना करने का यही क्रम है। इसी क्रम से चलकर सब जीव मुक्त हो सकते १. सम्यक्त्व - सच्चे धर्म का श्रद्धानी, २. आठ मूलगुण- मद्य, मांस,मधु हैं। जो हुए हैं, वह भी इसी क्रम से हुए हैं यही बात मालारोहण जी ग्रंथ में बताई है। और पाँच उदम्बर फल-बड़, पीपल, ऊमर,कठूमर, पाकर इनका त्यागी, ३. चार । जे सिद्ध नंतं मुक्ति प्रवेसं,सुद्धं सरूपं गुन माल ग्रहितं। ५ प्रकार का दान-आहार दान, औषधि दान, अभय दान और ज्ञान दान पात्र जीवों जे कवि भध्यात्म समिक्त सर्वते जांति मोयं कथितं जिनेन्द्र॥३२॥४ को देना. ४. सम्यकदर्शन, ज्ञान, चारित्र रत्नत्रय की गुण, पर्याय की विशेषता से अब, जो जीव सम्यक्दर्शन सहित अन्तरात्मा मुक्ति के मार्ग पर चलते हैं, साधना करना,५. सूर्य अस्त होने के दो घड़ी (४८ मिनिट) पहले भो उनकी अन्तरंग और बहिरंग दशा बाह्य आचरण कैसा होता है। इसे क्रम से आगे की अर्थात् रात्रि भोजन का त्यागी, ६. प्रासुक जल, पानी छानकर पीना। इन अठारह गाथाओं में कहते हैं, जघन्य अव्रती श्रावक अट्ठारह क्रियाओं का पालक होता है - क्रियाओं का शुद्ध भाव से जिनागम के अनुसार पालन करता है वह जघन्य पात्र जघन्य अवत नामंच, जिन उक्तं जिनागर्म । हैं अव्रत सम्यक्दृष्टि होता है, जो मुक्ति का प्रारंभिक पथिक है। सार्धं न्यान मयं सुद्धं, दस अष्ट क्रिया संजुतं ।। १९८॥ बहिरात्मा से अन्तरात्मा होना और परमात्मा बनने की ओर बढ़ना यही आत्म कल्याण का मार्ग है। यह जीव आत्मा अनादिकाल से बहिरात्म भाव से संसार में संमिक्तं सुखधर्मस्य, मूल गुनस्य उच्यते । २ रुल रहा है। अन्तरात्म भाव जाग्रत हो जाना ही इष्ट उपादेय और प्रयोजनीय है। दानं चत्वारि पात्रं च, सार्थ न्यानं मयं धुवं ॥ १९९ ॥ यह पुदगलादि को देख रहा है और यही मैं हूँ ऐसा मान रहा है,यही बहिरात्मपना, दर्सन न्यान चारित्रं, विसेषितं गुन पर्जयं । बहिरात्म भाव है जिससे संसार का परिभ्रमण नाना प्रपंच पुण्य-पाप का चक्कर, अनस्तमितं सद्धभावस्य, फास जल जिनागमं ॥ २००॥ कर्मादि निमित्त बने हैं। मैं एक अखंड अविनाशी ध्रुव तत्वज्ञानानंद स्वभावी भगवान अन्वयार्थ- (जघन्य अव्रत नामंच) जघन्य लिंग अव्रत नाम का (जिन उक्तं IS आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं, एक बार अन्तरंग में ऐसी हुंकार . जिनागम) जिनेन्द्र भगवान ने जिनागम में कहा है (सार्धन्यान मयं सुद्ध) जो अपने ॐ गूंज जाये तो बेड़ा पार है, यही अन्तरात्मपना है और इससे मुक्ति मार्ग स्वयं घटित 3 होता है। आगे पैंतीस क्रियाओं का वर्णन कर रहे हैंज्ञानमयी शुद्ध स्वभाव का श्रद्धान करता है (दस अष्ट क्रिया संजुतं) और अठारह क्रियाओं सहित होता है। एतत् क्रिया संजुक्तं , सुद्ध संमिक्त धारना। (संमिक्तं सुद्ध धर्मस्य) शुद्ध धर्म का श्रद्धानी (मूल गुनस्य उच्यते) और जो प्रतिमा व्रत तपस्वैव, भावना कृत साधयं ।। २०१॥ मूलगुण कहे गये हैं (दानं चत्वारि पात्रंच) चार प्रकार के दान पात्रों को देता है (सार्धं! अन्वयार्थ- (एतत् क्रिया संजुक्तं) इस प्रकार अट्ठारह क्रियाओं सहित (सुद्ध न्यानं मयं धुवं) और अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव की साधना करता है। ५ संमिक्त धारना) शुद्ध सम्यक्त्व धारी (प्रतिमा व्रत तपस्चैव) ग्यारह प्रतिमा बारह (दर्सन न्यान चारित्रं) दर्शन ज्ञान और चारित्र की (विसेषितं गुन पर्जयं) गुण तपों की (भावना कृत सार्धयं) साधना करने की भावना करता है। पर्याय विशेषता से साधना करता है (अनस्तमितं सुद्धभावस्य) शुद्ध भाव प्रगट होने भावस्य) शुद्ध भाव प्रगट हान विशेषार्थ-यहाँ श्रावक की त्रेपन क्रियाओं का स्वरूप बताया जा रहा है जिनमें से, दिन डूबने के बाद भोजन नहीं करता (फासू जल जिनागमं )और फासू अर्थात् सूअयात्5 से अठारह क्रियायें जघन्य पात्र अव्रत सम्यक्दृष्टि के जीवन में होती है, शेष पैंतीस , प्रासुक जल जैसा जिनागम में बताया है वैसा सेवन करता है। क्रियायें व्रती श्रावक अपनी पात्रतानुसार पालता है। धर्म मार्ग पर चलने में यह व्यवहार विशेषार्थ- जघन्य लिंग अव्रत सम्यक्दृष्टि का स्वरूप जिनेन्द्र भगवान ने और निश्चय का समन्वय आवश्यक है; क्योंकि संसार में सभी जीव कर्म संयोग में हैं, जिनागम में कहा है, जो अपने ज्ञानमयी शुद्ध स्वभाव का श्रद्धान करता है तथा इनसे छूटने के लिये बाह्य व्रत संयम तप भी आवश्यक हैं। जिस संयोग वातावरण अठारह क्रियाओं सहित होता है। कार्य कारण में रह रहे हैं, जब तक उससे बचेंगे हटेंगे नहीं, तब तक वह क्रिया तथा र १३२
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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