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04 श्री आपकाचार जी उस तरफ के भाव भी नहीं छूट सकते इसलिये साधक दोनों तरफ से साधना और कठोर कठिन स्थानों पर बैठना तप करना। संभाल करता हुआ चलता है।
छह अन्तरंग तप-१.प्रायश्चित-कोई दोष लगने पर दंड लेकर शुद्ध होना, त्रेपन क्रियाओं का विशेष वर्णन रयणसार एवं क्रियाकोष आदि ग्रन्थों में भी है। २.विनय-धर्म वधर्मात्माओं का आदर करना, ३. वैयावृत्य-रोगी-दु:खी निराश्रय गुण वय तव सम पडिमा दाणं जल गालणंच अणत्यमिय।
* धर्मात्मा, भाईयों बहिनों की सेवा करना, ४. स्वाध्याय- शास्त्रों को पढ़ना व ७ दसण णाण चरितं, किरिया तेवण्ण सावया भणिया ॥
विचारना, ५. व्युत्सर्ग- शरीरादि से ममत्व त्यागना, ६. ध्यान- आत्म ध्यान का . आठ मूल गुण, बारह व्रत, बारह तप, सम्यक्त्व , ग्यारह प्रतिमा, चार दान, अभ्यास करना। जल गालन, रात्रि भोजन का त्याग, सम्यक्दर्शन,सम्यक्ज्ञान,सम्यक्चारित्र की इन त्रेपन क्रियाओं का पालन करने वाला श्रावक होता है, जघन्य पात्र अव्रत साधना इस प्रकार त्रेपन क्रियायें हैं। इनमें अठारह क्रियाओं का पूर्व में वर्णन किया । सम्यक्दृष्टि अठारह क्रियाओं का पालन करता हुआ इन पैंतीस क्रियाओं के पालन जा चुका है, शेष पैंतीस क्रियाओं का वर्णन यहाँ कर रहे हैं।
करने की भी भावना करता है, यथाशक्य पालता भी है; परंतु अभी गृहस्थ दशा में ग्यारह प्रतिमा-दर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा,प्रोषधोपवास मोहनीय कर्म की तीव्र सत्ता होने से अव्रत दशा पाप-परिग्रह आदि संसारी प्रपंच में प्रतिमा,सचित्त प्रतिमा, अनुराग भक्ति प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा, आरंभ त्याग प्रतिमा, ही फंसा रहता है परंतु उसकी भावना छटपटाहट तो प्रबल रहती है कि कब इन सब परिग्रह त्याग प्रतिमा, अनुमति त्याग प्रतिमा, उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा।
प्रपंचों से मुक्त होकर अपने आत्मीक आनंद में रहूँ। वह तो सिंह पींजरे में दियो, जोर बारह व्रत-पंचअणुव्रत-१. अहिंसा अणुव्रत (संकल्पी त्रस हिंसा का चले कछु नाहीं,जैसी स्थिति में रहता है। ज्ञान का अपूर्व माहात्म्य है - त्याग), २. सत्य अणुव्रत, ३. अचौर्य अणुव्रत, ४. ब्रह्मचर्य अणुव्रत (स्वस्त्री ?
ज्यों दीपक रजनीसमै,चहुं दिसि करे उद्योत। संतोष),५. परिग्रह का प्रमाण (सम्पत्ति आदि का प्रमाण कर लेना)
प्रगटें घटपट रूप में,घटपट रूपन होत॥ तीन गुणवत-१.दिग्व्रत-जन्म पर्यंत लौकिक कार्यों के लिये दस दिशाओं
त्यों सज्ञान जाने सकलजेय वस्तुको मर्म। में जाने की मर्यादा करना। २. देशव्रत-जो मर्यादा ली है उसमें से और घटाकर
ज्ञेयाकृति परिनवै पै, तजे न आतम धर्म ॥ प्रतिदिन का नियम लेना। ३. अनर्थदंड व्रत-व्यर्थ के पाप करने का त्याग.जैसे पाप
ज्ञान धर्म अविचल सदा, गहे विकार न कोई। का उपदेश, अपध्यान खोटा विचार, हिंसाकारी वस्तु देना,खोटी कथाओं का पढ़ना,
राग विरोध विमोहमय, कबहुँ भूलि न होई॥ सुनना और प्रमादचर्या करना।
ऐसी महिमा ज्ञान की, निहचै है घट माहि। चार शिक्षाव्रत-१.सामायिक-सुबह, दोपहर, सायं यथाशक्ति एकान्त में
मूरख मिथ्यादृष्टि सौं,सहज विलोके नाहि॥ बैठकर धर्म ध्यान करना।२. प्रोषधोपवास- अष्टमी व चतुर्दशी को व्रत करना। ज्ञानी अन्तरात्मा का चिन्तन स्वयं के दोषों की आलोचना रूप होता है। ३. भोगोपभोग परिमाण-पांचों इन्द्रियों की भोग्य वस्तुओं का नित्य प्रमाण करना।
ज्ञानवंत अपनी कथा,कहै आपसौं आप। ४.अतिथि संविभाग-पात्रों को दान देकर भोजन करना।
मैं मिथ्यात दशा विष, कीने बहुविधि पाप॥ बारह तप-छह बाह्य तप-१.उपवास-चारों प्रकार के आहार का त्याग करना, ज्ञानी क्या विचार करता है नाटक समयसार में कहा है - २.ऊनोदर- भूख से कम खाना, ३. वृत्ति परिसंख्यान-कोई प्रतिज्ञा लेकर आहार
हिरवे हमारे महामोह की विकलताई, को जाना,४. रस परित्याग-दूध,दही, घी,तेल, नमक, मीठा, हरी सब्जी इनमें से
ताते हम करुनानकीनी जीव घात की। एक या अनेक रसों का त्याग करना, ५. विविक्त सय्याशन- एकांत में सोना
आपपापकीने औरनि को उपदेश दीने, बैठना,चिंतन मनन करना, ६. काय क्लेश-शरीर का सुखियापना मिटाने के लिये
हुती अनुमोदना हमारे याही बात की।
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