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श्री श्रावकाचार जी
मन वचन काया में मगन है कमाये कर्म,
धाये भ्रमजाल में कहाये महापातकी । ज्ञान के उदय भए हमारी दशा ऐसी भई,
जैसे भानुभासत अवस्था होत प्रात की ।। अव्रत सम्यक्त्वी का निर्णय क्या होता है इसे कहते हैंसम्यकवंत कहै अपने गुन, मैं नित राग विरोध सौंरीतो । मैं करतूति करूँ निरवंछक, मोहि विषै रस लागत तीतो ॥ सुद्ध सुचेतन को अनुभौ करि, मैं जग मोह महाभट जीतो । मोख समीप भयो अब मो कहुँ, काल अनंत इही विधि बीतो ॥
इस प्रकार अन्तरात्मा जघन्यपात्र अव्रत सम्यदृष्टि सामान्य ग्रहस्थ मोक्षमार्ग के पथिक का निर्णय और सत्यधर्म का श्रद्धान किस रूप होता है, उसका वर्णन अभी तक किया। आगे उसका जीवन कैसा होता है इसका स्वरूप वर्णन करते हैं; क्योंकि जीवन में निश्चय और व्यवहार का समन्वय पात्रतानुसार होना आवश्यक है ।
यहाँ एक प्रश्न आता है कि सम्यक्त्व के कई भेद बताये गये हैं तो कौन सा सम्यक्त्व कार्यकारी है इसे और स्पष्ट करें ?
उसका स्पष्टीकरण सद्गुरू इस गाथा में कर रहे हैंअन्या संमिक्त संमिक्तं, भाव वेदक उपसमं ।
क्षायिकं सुद्ध भावस्य, संमिक्तं सुद्धं धुवं ॥ २०२ ॥ अन्वयार्थ (अन्या संमिक्त संमिक्तं) सम्यक्त्व कोई सा भी हो, आज्ञा सम्यक्त्व (भाव वेदक उपसमं) उपशम सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व तथा ( क्षायिकं सुद्ध भावस्य) क्षायिक सम्यक्त्व हो या शुद्ध स्वभाव की अनुभूति रूप (संमिक्तं सुद्धं धुवं) शुद्ध सम्यक्त्व हो जो शुद्ध है ध्रुव है।
विशेषार्थ - यहाँ यह प्रश्न करने पर कि सम्यक्त्व कौन सा कार्यकारी है ?
SYA YASA YA ARA YEAR.
सम्यक्दर्शन की अपेक्षा सम्यक्त्व में कोई भेद नहीं है, एक समय की निज शुद्धात्मानुभूति जो संसारी जीव को होती है, वही अनुभूति सिद्ध परमात्मा को सिद्ध
गाथा-२०२ 6
दशा में होती है इसमें कोई भेद नहीं है। जैसे- मिश्री के एक कण का जो स्वाद एक सामान्य आदमी को आता है, वैसा ही बड़ी डली का स्वाद बड़े आदमी को आता है, मिठास अनुभूति में भेद नहीं है। मिठास की मात्रा में भेद होता है। इसी प्रकार आत्मानुभूति सम्यक्दर्शन में कोई भेद नहीं है, उसकी स्थिति आदि में भेद होता है इसलिये सम्यक्त्व कोई सा हो इसमें कोई भेद नहीं है ।
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यहाँ प्रश्न होता है कि सम्यक्त्व और सम्यक्दर्शन में क्या अन्तर है ? उसका समाधान करते हैं कि सम्यक्त्व- सच्चे श्रद्धान को कहते हैं और सम्यक्दर्शन- सच्ची अनुभूति को कहते हैं।
यहाँ प्रश्न है कि श्रद्धान और अनुभूति में क्या अंतर है ?
उसका समाधान - श्रद्धान- विश्वास जानकारी मान्यता को कहते हैं, जैसे देव गुरू धर्म का श्रद्धान, उनके भेद आदि जानना। मैं आत्मा हूँ ऐसी मान्यता को श्रद्धान कहते हैं। अनुभूति- अनुभव प्रमाण स्वीकारता । जैसे- किसी एक विषय पर उसका विशेषज्ञ जानकारी देवे, बतावे और श्रोता या विद्यार्थी उसकी बात पर विश्वास करके उसे मानने लगे, यह श्रद्धान है। जैसे- यह नमक है या मिश्री है, जो चख लेगा, स्वाद ले लेगा वह अनुभूति है और वह अनुभव प्रमाण सत्य ध्रुव होता है। श्रद्धान में शंका संशय हो सकते हैं, अनुभूति में कोई शंका संशय नहीं होता।
यहाँ कोई प्रश्न करे कि हम अव्रत सम्यकदृष्टि तो हो गये परंतु अभी हमारे जीवन में व्रत नियम संयम नहीं आ रहे, तो क्या जबरदस्ती करें ?
उसका समाधान करते हैं कि भाई ! जबरदस्ती करने, नहीं करने की बात ही नहीं है, वह तो होते हैं। अगर नहीं हो रहे तो उसमें तीन कारण हो सकते हैं
१. हम स्वयं स्वच्छन्दी मिथ्यादृष्टि हैं, अपने आपको अव्रत सम्यकदृष्टि बना इसके समाधान में सद्गुरु कहते हैं- सम्यक्त्व कोई सा हो आज्ञा सम्यक्त्व हो, 5 रहे हैं, कहा रहे हैं जिससे हमारी शरीरादि विषयों की पूर्ति मनमानी होती रहे । उपशम सम्यक्त्व हो, वेदक सम्यक्त्व हो, क्षायिक सम्यक्त्व हो, निज शुद्ध स्वभाव की अनुभूति स्वरूप शुद्ध सम्यक्त्व हो, सम्यक्त्व ही शुद्ध है ध्रुव है।
२. विशेष कर्मोदय सत्ता में होवे, अशुभ पापादि कर्मों का उदय होवे या शरीर रोगी आदि होवे ।
तो यहाँ अन्तरात्मा वह होता है जिसे निज शुद्धात्मानुभूति हो जाती है वही जघन्य पात्र अव्रत सम्यक्दृष्टि कहलाता है और उसका जीवन इस क्रम से आगे बढ़ता है। इन सब क्रियाओं का पालन उसके जीवन में होने लगता है।
३. खोटा आयुबन्ध हो गया हो, नरक तिर्यंच गति में जाना हो तो व्रत नियम संयम के भाव नहीं होते; अन्यथा सम्यक्दर्शन होते ही साधुपद की छलांग लगती है,